कभी
न कभी तो
सोचते
सब ही
अगर, ऐसा होता तो
कितना
अच्छा होता न...
लेकिन...
न जाने कहाँ से
निकलकर
आ जाता बीच में
एक
'मगर'... और...
पकड़
लेता टांग उस ख्याल की
बेचारा
तिलमिला कर
जोर-जोर
से चीख-चिल्लाकर
आखिर
हो ही जाता बेसुध
कोई
जो पूछ ले
कि
हाल कैसा हैं जनाब का
तो
मुंह से यही निकलता...
मैं
हूँ मगर, क्यों ?
यह
तो खुद मुझे ही मालूम नहीं
अक्सर...
नाज़ुक स्वपन
यूँ
ही जनम लेते जेहन के भीतर
पर, होने से पहले हकीकत
में क्रियान्वित
कोई
'मगर' लील लेता उसको
केवल...
उसी के
ख्वाब
साकार होते जो
न
उलझते इन अगर-मगर के
बिछाये
हुये जाल में...!!!
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© ® सुश्री
इंदु सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर (म.प्र.)
१३ जुलाई २०१७
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