रविवार, 9 जुलाई 2017

सुर-२०१७-१८९ : आषाढ़ पूर्णमासी आई गुरु पूर्णिमा की देते बधाई...!!!


विश्व के सबसे बड़े काव्य ‘महाभारत’ के रचयिता महर्षि वेदव्यास की जयंती जिसे ‘गुरु पूर्णिमा’ के नाम से जाना जाता ‘आषाढ़ मास’ की समाप्ति पर आती और सभी साधकों व शिष्यों के लिये ख़ुशी का पैगाम लाती कि इस तरह से वे भी अपने जीवन में मिलने वाले गुरुजनों व शिक्षकों जिनसे उन्होंने किसी भी तरह का ज्ञान प्राप्त किया उनके प्रति अपनी आदरांजलि प्रकट कर पाते इसलिये हमारी भारतीय भूमि में आज के पावन दिन बड़े-बड़े महोत्सवों का आयोजन किया जाता जहाँ प्राचीन गुरु-शिष्य परंपरा का उदाहरण प्रस्तुत करते हुये शिक्षकों का सम्मान किया जाता जो कि आज के आधुनिक समाज में और भी अधिक आवश्यक हो जाता क्योंकि अब न तो वो समाज रहा और न ही वैसा वातावरण जहां शिष्य अपने आपको पूर्ण रूप से पारस रूपी गुरु को समर्पित कर देता था जिसके परिणामस्वरूप उसका वर्तमान ही नहीं भविष्य भी संवर जाता जिससे उसका व्यक्तित्व कुंदन की तरह निखरकर सबके सामने आता और उसी तरह वो दूसरों के जीवन के अंधकार को भी अपनी ज्ञान किरणों से प्रकाशित कर उसे रोशन कर अपने गुरु को वास्तविक दक्षिणा देते

ऐसे अनेक गुरु-शिष्य इस धरा पर हुये जिन्होंने ये साबित किया कि केवल शिष्य को ही एक उत्तम गुरु की आवश्यकता नहीं होती बल्कि गुरु भी ऐसे शिष्यों की तलाश में रहते जिन्हें वे अपना संचित ज्ञानकोष देकर आशान्वित हो सके कि उन्होंने सही हाथों में अपनी विरासत सौंपी हैं जिसका लाभ आने वाली पीढ़ियों को अनवरत मिलता रहेगा यही वजह कि एक सच्चा शिष्य अपने गुरु के पदचिन्हों पर चलकर गुरु के पद तक पहुंच जाता जहाँ फिर वो अपने ही जैसे अनेकानेक शिष्य तैयार करता और इस तरह गुरु-शिष्य ज्ञान की ये गंगा सतत प्रवाहित होती रहती ऐसे गुरु-शिष्यों की बात चले जब भी तो जेहन में सबसे पहले गुरु द्रोण और अर्जुन का नाम ही आता जिन्होंने एक-दूसरे को इस तरह से अपनाया कि एक-दूजे की पहचान गये और उनके नाम भी एक-दूसरे के बिन अधूरे प्रतीत होते फिर आग बढ़े तो स्वामी विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस की जोड़ी याद आती जहाँ एक ने अपना सर्वस्व दूसरे को देकर उसे विश्वगुरु बना दिया और उसके बाद ऐसे ही अनेक नाम एक-एक कर दिमाग के पर्दे पर चमकते दिखाई देते जो बताते कि गुरु और शिष्य के एक-दूजे के बिना अधूरे हैं और जब वो एक-दूसरे को ढूंढ लेते तो फिर इतिहास रच जाते

हम गर्भावस्था से ही सीखना शुरू कर देते तो इस तरह से हमारी प्रथम गुरु हमारी माँ बन जाती जो जन्म के पूर्व ही नहीं बाद में भी हमें हर तरह का ज्ञान देती और फिर ये सिलसिला शुरू होता एक बात तो आजीवन चलता ही रहता कि कदम-कदम पर हमें किसी न किसी रूप में कोई ऐसा गुरु मिल जाता जो कोई न कोई सबक देकर जाता चाहे फिर वो राह में मिलने वाली ठोकर ही क्यों न हो या फिर किसी मित्र या शत्रु से मिला हुआ धोखा सबमे ही कोई न कोई गूढ़ ज्ञान छिपा होता जिसे आत्मसात कर ले तो फिर जीवन में वो गलती नहीं दोहराते कभी हम और हर एक शय से शिक्षा पाने की अपनी आदत से निखरकर एक संपूर्ण शख्सियत बन जाते तो आज जीवन के हर मोड़ पर मिलने वाले समस्त गुरुओं को गुरु-पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनायें... :) :) :) !!!            
  
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

०९ जुलाई २०१७

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