रविवार, 23 जुलाई 2017

सुर-२०१७-२०३ : ‘तिलक’ और ‘आज़ाद’ भारत माँ के दो सच्चे लाल...!!!


२३ जुलाई १८५६...

भारत भूमि में बसे ‘रत्नागिरी’ नाम के स्थान पर एक सुसंस्कृत ब्रम्हाण परिवार में जन्मे ‘लोकमान्य श्री बाल गंगाधर तिलक’ उनके पिता ‘श्री गंगाधर रामचंद्र तिलक’ केवल एक शिक्षक ही नहीं बल्कि लोकप्रिय अध्यापक थे जिन्होंने ‘ज्यामिति’ और ‘त्रिकोंमिति’ जैससे जटिल विषयों पर पुस्तकें भी लिखी तो उनके असीमित ज्ञान का प्रभाव ‘गंगाधर’ पर होना ही था तो हुआ भी जिसके कारण उन्होंने असमी पिता की मृत्यु हो जाने पर भी अपनी शिक्षा को जारी रखते हुये बी.ए. आनर्स एवं एल.एल.बी. की उपाधि प्राप्त की जो उनकी दृढ इच्छाशक्ति व लगन को दर्शाता हैं जिसकी वजह से उन्होंने अपने जीवन के हर एक संकल्प को पूरा किया चाहे फिर वो स्कूल की स्थापना करना हो या फिर ‘द मराठा’ व ‘केसरी’ जैसे अख़बारों का प्रकाशन उन्होंने जो भी कार्य हाथ में लिया उसे पूरा कर के ही दम लिया इसलिये तो जब उनके मन में अपनी मातृभूमि को आज़ाद कराने की इच्छा उत्पन्न हुई तो फिर स्वतंत्रता संग्राम में भी सक्रिय हिस्सा लेते हुये अंग्रेजी सरकार के खिलाफ़ अपनी जंग का न केवल ऐलान किया बल्कि उसके लिये हर तरह के संभव प्रयास भी किये जिनका नतीजा निकला कि उन्होंने ‘स्वराज’ की संकल्पना करते हुये ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार हैं और मैं इसे लेकर रहूँगा’ की उद्घोषणा के साथ जन-जन को इसके लिये जागरूक भी किया ताकि वो उनके साथ आकर उनके अभियान में भाग ले और अपने देश को स्वतंत्र कराये उनके इस तरह के जनअभियान ने ही उन्हें ‘लोकमान्य’ का ख़िताब दिलवाया और उनकी मेधा शक्ति ने उन्हें सदैव क्रियाशील रखा जिसकी वजह से जेल में जाने पर भी उन्होंने अपना लेखन रोका नहीं और देश को ‘'भगवद्गीता - रहस्य' जैसी अनोखी किताब देकर उस संदेश को लोगों के मानस पटल से मिटाने की एक कोशिश की जिसकी वजह से ‘गीता’ जैसे ग्रंथ को महज़ सन्यास को प्रेरित करने वाला प्रचारित किया जाता था तो उन्होंने अपने अनुवाद से ये प्रसारित किया कि इसमें तो अनवरत कर्म करने की बात कही गयी हैं न कि कर्म से विरत होकर सन्यासी बनने का संदेश दिया गया हैं इसके अतिरिक्त अनेक सामाजिक कार्यों व क्रन्तिकारी गतिविधियों के जरिये उन्होंने देश सेवा करते हुए १९२० में अपने प्राण त्याग दिये

२३ जुलाई १९०६...

भारत भूमि के ही एक ग्राम ‘भावरा’ में जो कि अब मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले का एक गाँव में ‘पंडित चंद्रशेखर आज़ाद’ का जन्म एक सुसंस्कृत ब्राम्हण परिवार में हुआ जिन्हें अपने माता-पिता का उस तरह सहयोग प्राप्त नहीं हुआ लेकिन फिर भी सभी तरह के अभावों के बावजूद भी उस बालक ने अपनी अदम्य इच्छाशक्ति के दम पर अभूतपूर्व कारनामे कर दिखाये वो भी इतनी कमउम्र में जबकि आदमी खुद ही संभल नहीं पाता लेकिन जो वाट के थपेड़ों और संघर्षों की आग में जलकर पलते हैं वे खुद दिया बन जाते और जग को प्रकाश देने का काम करने लगते हैं तभी तो १९१९ में जबकि उनकी उम्र लगभग १२ या १३ वर्ष रही होगी उन्होंने जलियावाला बाग़ जैसे भीषण नरसंहार को सुना तो हृदय इस तरह द्रवित हो गया कि देश के लिये कुछ कर गुजरने का संकल्प तभी मन में पूरी तरह स्थापित हो गया फिर जब १९२१ में पुरे देश में असहयोग आन्दोलन की लहर चली तो वे भी उसमें शामिल हो गये और जब गिरफतार किया गया तो बड़ी दृढ़ता से अपना नाम ‘आज़ाद’ और पिता का नाम ‘स्वाधीनता’ तथा घर का पता ‘जेल’ बताया जिसने उतनी सी उम्र में उनके जोशीले इरादों की झलक दिखा दी जिसके वशीभूत होकर उन्होंने अपनी मातृभूमि के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुये अपने ही हाथों अपने प्राणों की आहुति दे दे लेकिन अपने नाम के साथ ‘आज़ाद’ लगाकर जो एक बार कह दिया कि ‘आज़ाद जिया हूँ, आज़ाद मरूँगा’ तो २७ फरवरी १९३१ को अपने वचन को सच साबित कर के दिखाया जबकि आज के नौजवान तो २५ साल की उम्र में अपने आपको ही नहीं पहचान पाते और अब से ज्यादा नहीं महज़ ७०-८० वर्ष पूर्व इस देश के युवाओं में वो जज्बा था कि उन्होंने जवानी में न सिर्फ अपने लक्ष्य को प्राप्त किया बल्कि उसके लिये अपने आपको तक वतन पर निछावर कर दिया और उन्हीं के बलिदानों की वजह से हम आज गुलामी के बेड़ियों से स्वतंत्र होकर खुली हवा में साँस ले रहे हैं   
 
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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)

२३ जुलाई २०१७

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