पूरब और पश्चिम
का ऐसा अनोखा मेल उनके व्यक्तित्व ही नहीं कृतित्व में भी था जहाँ नायक भले ही
सूट-बूट में हो या फिर पश्चिमी परिधान में लेकिन, सीने में धड़कने वाला दिल सौ टके
हिंदुस्तानी होता था जिसने उसको हर एक दिल का अजीज बना दिया और वैसे भी माटी से
जुड़े व्यक्ति का भोला-भाला मानस सहज ही सबको अपना बना लेता हैं तो उन्होंने अपने
उस मासूम निर्मल प्रेमिल चेहरे से सब पर ऐसा जादू कर दिया कि भारत से लेकर रूस तक
हर एक की जुबां पर उनका नाम और उनके गीत के बोल थे ।
जब देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु जी अपनी बिटिया ‘इंदिरा’ के
साथ राष्ट्रपति ‘बुल्गानिन’ के शासनकाल में सोवियत संघ के दौरे पर गये तो वहां से
लौटकर उन्होंने ‘पृथ्वीराज कपूर’ को बुलाकर उनसे पूछा, ये आवारा फिल्म क्या हैं?
क्या तुम्हारे ही बेटे ने बनाई हैं? ‘बुल्गानिन’
बहुत तारीफ कर रहे थे तब ‘पृथ्वी’ का सीना किस तरह गर्व से चौड़ा हो गया हो गया
होगा इसका अंदाजा हम लगा सकते हैं ।
हर एक पिता का
ये सपना होता हैं कि एक दिन उसका पुत्र उससे भी अधिक नाम कमाये और लोग उसे उसके
पिता के रूप में पहचाने तो उनका ये ख्वाब उनके जीते-जी ही उनके सुपुत्र ने बहुत ही
कम उम्र में सच कर दिखाया और महज़ २१ साल की उम्र में ‘आग’ जैसी फिल्म का निर्देशन
किया और २५ के भी नहीं हुये कि ‘बरसात’ जैसी ब्लाक बस्टर मूवी बना दी जिसने उन्हें
उतनी-सी उम्र में ही लखपति बना दिया और भी ३० साल के भी पूरे नहीं हुये कि अपने खुद
के विशाल स्टूडियो के मालिक बन गये । याने कि जितना कोई सोच भी नहीं उससे अधिक
उन्होंने उतनी कम उम्र में प्राप्त कर लिया था जो कि उनका आरंभिक काल था उसके बाद
तो उन्होंने फ़िल्मी दुनिया को ऐसे नायब शाहकार दिये कि उन्हें ‘ग्रेटेस्ट शो मैन’
कहा जाने लगा और उनकी फिल्मों का तो लोग सालों-साल तक भी इंतजार करते क्योंकि, वे
जानते थे कि वे एक बार में एक ही फिल्म बनाते लेकिन, वो लाज़वाब होती सिर्फ मनोरंजन
ही नहीं करती कोई न कोई समाजिक संदेश भी देती ।
वे कल्पना को
इस तरह से रजत पर्दे साकार करते कि देखने वाले आँखे और मुंह फाड़कर उसे देखते रह
जाते थे और उन दृश्यों को देखने बार-बार सिनेमाघरों में जाते थे जिसकी वजह से उनकी
फ़िल्में ज्यादातर ब्लाक बस्टर ही होती थी तो टिकिट खिड़की तोड़ सफलता अर्जित करती थी
जिसके दिवाने सिर्फ हमारे देश के लोग ही नहीं विदेशों में रहने वाले भी थे । वे पहले ऐसे भारतीय फ़िल्मकार थे जिन्होंने हिंदी सिनेमा को अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर पहचान दिलाई और उनका फिल्मों के प्रति समर्पण ऐसा था कि वो जो भी कमाई
करते उसे अपनी अगली फिल्म में लगा देते और यदि फिल्म फ्लॉप हो तब भी हिम्मत नहीं
हारते बल्कि, अधिक जोश-खरोश से अगली फिल्म की तैयारी में जुट जाते उनका ये जुनून
ही था जिसने उनको सोते-जागते सिर्फ फ़िल्में बनाने को प्रेरित किया और वे सिर्फ एक
अदाकार या निर्देशक ही नहीं बेहतरीन संगीत के जानकार और मानवीय संवेदनाओं व
जज्बातों के गहनतम दृष्टिकोण के मालिक थे ।
यही वजह कि उनकी
फिल्माई कहानियों में नायक, नायिका, चरित्र कलाकार, संगीत, परिधान सब कुछ एकदम
परफेक्ट होता था और हर एक भाव उभरकर सामने आता था ये हमारी बदनसीबी हैं कि वे हमको
कम उम्र में भी छोडकर छे गये लेकिन, उनका जो जीवन मंत्र था, ‘शो मस्ट गो ऑन’ वो
बदस्तूर जारी हैं उर उनका परिवार आज चार पीढ़ियों से फ़िल्मी दुनिया की सेवा कर रहा
हैं उसे अपना योगदान देकर दुनिया के कोने-कोने में पहुंचा रहा हैं और ये साबित कर
रहा कि...
कल खेल में हम
हो न हो
गर्दिश में
तारे रहेंगे सदा
भूलोगे तुम,
भूलेंगे वो
पर हम तुम्हारे
रहेंगे सदा
होंगे यहीं
अपने निशाँ
इसके सिवा जाना
कहाँ
जीना यहाँ मरना
यहाँ
इसलिये वो मरकर
भी मरे नहीं यही कहीं हैं, हमारे आस-पास फिल्मों में, रजत पर्दे पर या गीत-संगीत
में... बस, देखने वाली नजर होनी चाहिये... मिल जायेंगे... उन तक हमारा सलाम पहुंचे
कि हम भी उनको भूले नहीं... ☺ ☺ ☺ !!!
_____________________________________________________
© ® सुश्री इंदु
सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर
(म.प्र.)
०२ जून २०१८
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें