ऐ मालिक तेरे
बंदे हम
ऐसे हो हमारे
करम
नेकी पर चलें और
बदी से टलें
ताकि हंसते
हुये निकले दम...
सुबह का एकदम
शांतिपूर्ण माहौल और उसके साथ ही धीमे सुर में बजती हुई ये प्रार्थना जहाँ एक तरफ मन
को असीम शांति से भर देती वहीँ दूसरी तरफ हाथ स्वतः ही उस अदृश्य शक्ति के प्रति
श्रद्धा से जुड़ जाते और बंद नेत्रों के साथ होंठ भी सुर में सुर मिलाने लगते ये
जादू हैं उस आवाज़ का जिसने इसे स्वर दिया, उस कलम का जिसने इसे शब्द दिये और उससे
भी बढ़कर जिसने इन अल्फाजों को इतने मधुर संगीत के साथ ‘राग भैरवी’ में पिरोया कि उसका
जादू आज तक बरकरार और शायद, ही किसी की सुबह हो जिसमें ये शामिल न हो । यहाँ तक कि जब १९५७ में वो फिल्म जिसमें इस गीत को शामिल किया गया था
‘दो आँखें बारह हाथ’ जब प्रदर्शित हुई तो पंजाब सरकार ने इस गीत को सभी विद्यालयों
में प्रात:कालीन प्रार्थना सभा में शामिल कर लिया इससे बड़ी किसी भी संगीतकार के
लिये भला दूसरी क्या उपलब्धि होगी कि उसके सृजन को ऐसा सम्मान दिया जाये और सिर्फ
उस साल ही नहीं आज भी अधिकांश स्कूलों में हम इसे सुन सकते हैं इसका संगीत ही इसकी
पहचान हैं जिसकी धून बनाने का श्रेय संगीतकार ‘वसंत देसाई’ को जाता जिनका आज
जन्मदिवस हैं ।
हमको मन की
शक्ति देना
मन विजय करें
दूसरों की जय
से पहले
खुद की जय करें...
उस प्रार्थना
के १४ साल बाद १९७१ में उन्होंने फिर एक बार इतिहास रच दिया जब रजत पर्दे पर ‘गुलज़ार’
के लिखे इन शब्दों को ‘गुड्डी’ बनी ‘जया भादुड़ी’ पर बेहद आकर्षक तरीके से फिल्माया
गया और इस बार प्रार्थना के लिये नई गायिका ‘वाणी जयराम’ को मौका दिया गया और ‘राग
केदार’ में इसे बाँधा गया जिसने उस वर्ष न केवल इसे सर्वाधिक प्रचलित होने का गौरव
प्रदान किया बल्कि, ‘वाणी जयराम’ को भी हाथों-हाथ लिया गया और इस तरह ‘वसंत देसाई’
ने अपने संगीत को किसी विशेष गायिका से न जोड़कर उसके अनुसार गायक-गायिकाओं का चयन
कर नवीनतम प्रयोग भी किये । इस फिल्म का ‘बोले रे पपिहरा...’ गीत और ‘वाणी
जयराम’ की नई लेकिन, मधुरतम वाणी भी इस कदर पॉपुलर हई कि उसने रिकॉर्ड तोड़ दिए
यहाँ तक कि उसी साल सुर सम्राज्ञी ‘लता दीदी’ के ‘दस्तक’ फिल्म में ‘चारुकेशी’ में
बंधे शास्त्रीय गीत ‘बैयाँ न धरो...’ को भी इसने पीछे छोड़ दिया और ये साबित किया कि
यदि संगीत खुद में मुकम्मल हैं तो फिर किसी नई आवाज़ को भी मौका दिया जा सकता हैं न
कि स्थापित स्वरों पर ही निर्भर रहा जाये इस तरह ‘वसंत देसाई’ ने बंधी लीक तोड़ उभरते
कलाकारों को अवसर देकर जोखिम जरुर लिया पर हिट भी करवाया था ।
रेल गाड़ी रेल
गाड़ी
छुक-छुक
छुक-छुक
छुक-छुक
छुक-छुक
बीच वाले
स्टेशन बोलें
रुक-रुक
रुक-रुक रुक-रुक...
कौन हैं जिसने
अपने बचपन में ये गीत न सुना और गाया हो और आज भी बच्चों को एक न एक बार हम इसे
गीत से बहलाते ही हैं क्योंकि, इसकी लय और धुन इतनी प्यारी हैं कि इसे सुनना अच्छा
लगता हैं उस पर सिनेमा हॉल में ‘दादामुनि’ अशोक कुमार’ फिल्म ‘आशीर्वाद’ में अपनी
आवाज़ में जब ‘रैप स्टाइल’ में इसे गाते हुये प्रस्तुत करते तो देखने वाले उनके
हाव-भाव पर मुग्ध हो जाते कि किस तरह से फटाफट इसे गाते और दर्जनों स्टेशनों के
नाम एक के बाद एक लेते जाते यदि हम इसे पुरातन रैप सोंग भी बोले तो अतिश्योक्ति
नहीं होगी । केवल यहीं नहीं इस फिल्म में ‘अशोक कुमार’ ने ‘नाव
चली, नानी की नाव चली...’ महज़ २ मिनट का ऐसा शानदार ब्रेथलेस सोंग गाया जो सिर्फ
बच्चों ही नहीं बड़ों के चेहरों पर भी मुस्कान लाता हैं और इन दोनों ही गानों में संगीत
की उपस्थिति को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि किस तरह ‘वंसत देसाई’ ने उस जमाने
में ऐसे अद्भुत व अलहदा प्रयोग किये जिसकी भोंडी नकल आज के संगीतकार अश्लील
प्रस्तुतीकरण के साथ कर रहे हैं फिर भी वो मुकाम या नाम या पहचान नहीं मिल रही जिस
तरह से पुराने लोगों ने बनाई हैं ।
तेरे सुर और
मेरे गीत
दोनों मिल कर
बनेंगे गीत...
‘वसंत देसाईं’
ने अपने गीत-संगीत से कभी-भी समझौता नहीं किया और अंत तक शास्त्रीय संगीत ही रचते
रहे जबकि उनके समकालीन संगीत निर्देशक पाश्चात्य संगीत का सहारा लेने लगे थे पर,
उन्हें अपनी धुनों पर विश्वास था और हो भी क्यों न उन्होंने इसके अनेक गुर ‘आलम
खान’ व ‘उस्ताद इना।यत खान’ से तो ‘डागर बन्धुओं’ से ध्रुपद धमार की
बारीकियां सीखी थी इसके अलावा भी जब-भी जहाँ कुछ नया सीखने को मिला सीखा और उस पर
साथ मिला ‘वी. शांताराम’ जैसे सामाजिक सरोकार की फिल्म बनाने वाले महारथी का तो
दोनों ने मिलकर एक के बाद एक अनेक चमत्कार रच डाले ।
जिनमें से झनक-झनक पायल बाजे, डॉ कोटनिस की अमर कहानी, पर्वत पर अपना डेरा, दहेज,
तूफ़ान और दीया, शकुंतला आदि के नाम प्रमुख हैं और इसके अतिरिक्त उन्होंने स्वतंत्र
रूप से भी कई फिल्मों में संगीत दिया लेकिन, फिर भी वो साल में एक या दो ही फिल्म
करते थे क्योंकि, वे अपना काम पूर्ण समर्पण के साथ करते थे पर, जो भी किया वो
उल्लेखनीय हैं चाहे वो आशीर्वाद हो या गूँज उठी शहनाई, अर्धांगिनी, दो फूल या
मानसून इसके अलावा ‘गुलज़ार साहब’ की ‘अचानक’ व ‘सुनीत दत्त’ की प्रयोगात्मक फिल्म ‘यादें’
हो उनके बैकग्राउंड संगीत के बिना अधूरी हैं ।
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© ® सुश्री इंदु
सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर
(म.प्र.)
०९ जून २०१८
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