प्रतीक्षा की
वो घड़ियाँ
जिनमें
शामिल हो
अंधियारी रात
बड़ी मुश्किल से
कटती
आँखें भी तो
फिर
एक पल न पलकें
झपकती
हर आहट पर
चौंक-चौंक पड़ती
मन को तसल्ली
देती
एक नई सुबह की
आस
और दिल को
समझाये जाते
कि बस, आज की रात
किसी तरह से
गुज़र जाये
उफ़, ये काली अंधियारी रात
छोटे से भय को
भी
कितना बड़ा बना
देती हैं न
जबकि सबको पता
कि
हर हाल में
होनी ही हैं सुबह
फिर भी मुश्किल
घड़ी में
नादान बच्चे की
तरह घबराते
चंद पहर की रात
को
थामकर सांसों
की डोर गुज़ारते
जबकि ये रात ही
तो हैं
जिसकी कोख में
सुबह पलती
फिर क्यों
जिंदगियां डरती ?
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© ® सुश्री इंदु
सिंह “इन्दुश्री’
नरसिंहपुर
(म.प्र.)
०३ जून २०१८
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