बुधवार, 10 अक्तूबर 2018

सुर-२०१८-२८१ : #जीवन_दायिनी_ही_नहीं #मृत्यु_दायिनी_भी_होती_है_माँ




स्त्रियों को देवी स्वरूपा माना गया और दुर्गा की उपाधि से नवाजा गया तो उसके साथ केवल उन विशेषणों और गुणों को ही जोड़ा गया जिन्हें अपनाकर वो अपनी आंतरिक शक्ति को ही नहीं विस्मृत कर जाए बल्कि, उसकी वजह से वो घर-परिवार की धुरी बनकर गृहस्थी की गाड़ी को भी सुचारू रूप से चलाती जाये तो सदियों तक पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसके कर्ण में वही मंत्र फूंके गये जो उसकी आत्मा में भी जन्म-जन्मान्तर तक स्थानांतरित होकर उसे कमजोर, अबला, पराश्रित, निरीह, माता, गृहिणी, शांत, धैर्यवान, सहनशील, भोग्या बनाते रहे तो लम्बे समय तक उसी तरह की संतति अवतरित होती रही

जो सर झुकाकर उन पदचिन्हों पर चलती रही जो उससे पूर्व की स्त्रियों ने उसके लिये छोड़े थे जो किसी भी तरह के अत्याचार या अन्याय के खिलाफ़ मुंह खोलने की बजाय अपनी जुबान पर ताला लगाने में माहिर थी लेकिन, अखिर कब तक कठपुतलियां पैदा होती रहती कभी तो ये सिलसिला खत्म होना ही था कभी तो नारी को अपने वास्तविक रूप से परिचित होना था जिसके विविध आयाम होने के बाद भी अपनी एक वैयक्तिक पहचान होती है जिसके बूते पर वो खुद को पहचान पाती है अन्यथा सर पर घुंघट डाले सभी औरतें एक समान ही दिखाई देती है

लेकिन, जो अपनी आंतरिक शक्तियों से परिचित हो जाती है वो शब्दों के इन जाल में नहीं फंसती भले ही वो उसके नैसर्गिक गुण हो फिर भी वो जानती है कि कभी-कभी ऐसे भी पल या अवसर आते जबकि, मूक रहने से काम नहीं चलता तब सिर्फ जुबान ही नहीं पैरों की बेड़ियों को भी खोलना पड़ता और संस्कार की जिन रस्सियों में उसे कसकर बाँधा जाता उससे समाज और उलटवार करना पड़ता है जिससे कि स्त्रियों को कोल्हू का बैल समझकर चैन की नींद सोने वाले ये जान जाये कि यदि वो खामोश सारे घर को साथ लेकर चल सकती हैं तो जरूरत पड़ने पर अकेले ही उनके विरुद्ध भी हो सकती है

ज्वालामुखी भी अपने भीतर सब कुछ समेटे हुये आख़िरकार, एक दिन फट ही पड़ता तो वही हाल हो रहा संस्कारी, शर्मीली, घरेलू महिलाओं की स्थिति जो चारदीवारी में रहते-रहते असहनीय अवस्था में पहुँच गयी तो फिर विस्फोट तो होना ही था तो हो गया जो कभी ‘फेमिनिज्म’ के नाम पर तो कभी ‘मी टू’ जैसे अभियानों के नाम पर अपने भीतर छिपे उन गुणों को ज़ाहिर करता जिन्हें अवगुण बताकर उन्हें उससे दूर रहने की सलाह दी गयी थी पर, अब वो जान गयी कि चरित्र, इज्जत, शर्म-हया केवल उसके लिये ही नहीं बने न ही साहस, वीरता, बहादुरी केवल पुरुषों की ही बपौती है तो फिर वही क्यों अकेली उन सबका बोझ ढोये सब बराबरी से उसके भागिदार बने और ये लड़ाई उसने छेड़ दी है

वैसे देखा जाये तो जगत जननी माता के नौ दिवसीय दुर्गोत्सव का भी यही उद्देश्य कि नारियां अपने सभी रूपों के दर्शन करें उनको बखूबी समझे और जाने कि कब कहाँ, किस जगह उसे कौन-सा धारण करना हैं... इसलिये अब वो ‘दुर्गा’ या ‘देवी’ ही नहीं ‘काली’ या ‘चंडी’ बनकर भी अपनी ताकत दुनिया को दिखाना चाहती है जिसका पीछे वजह केवल इतनी-सी कि उसे भी सम्मान चाहिये, बराबरी का हक़ चाहिये... जिसे एक वर्ग ने दबाकर रखा हुआ है आधी आबादी की ये जंग अब वैश्विक स्तर पर शुरू हो चुकी है तो निसंदेह जल्द ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेगी क्योंकि, वो जान गयी कि केवल, वो केवल जन्मदात्री ही नहीं है तो अब वो अपना हिस्सा मांग नहीं रही बल्कि, छीन रही है, लूटते-लूटते वो लुटना भी सीख गयी है दुर्गोत्सव के इस वास्तविक मायने को ग्रहण करने हेतु सबको बहुत-बहुत बधाई... ☺ ☺ ☺ !!!

_____________________________________________________
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
१० अक्टूबर २०१८

कोई टिप्पणी नहीं: