बुधवार, 3 अक्तूबर 2018

सुर-२०१८-२७४ : #सिर्फ_पुत्र_नहीं_पुत्रियाँ_भी #श्राद्ध_की_अधिकारी_होती_है




पितृसत्ता’ को कोसते-कोसते पता ही न चला कब फेमिनिज्म की आड़ में खुद को फेमिना कहने वाली अपने पूर्वजों को ही गाली देने लगी जिसका नतीजा कि अब वो ‘पितृपक्ष’ पर भी ऊँगली उठाने लगी कि यही तो ‘पितृसत्ता’ की सबसे बड़े साजिश जिसकी वजह से स्त्रियों को दोयम दर्जे पर रखा जाता क्योंकि, इसमें सारे अधिकार पुरुषों को प्राप्त महिलायें न तो अपने पुरखों को पानी दे सकती न ही उनके निमित्त कोई विधि-विधान ही कर सकती इसी ने तो बेटों को अनिवार्य बनाया यदि ये नहीं होता तो लड़का-लड़की में कभी कोई भेद नहीं होता बेटा-बेटी को एक समान माना जाता

चूँकि, ये कर्म सिर्फ पुत्र ही कर सकता इसलिये सभी पुत्र की कामना करते कोई पुत्री नहीं चाहता जितने भी व्रत-पर्व है उनमें भी पुत्र का ही महत्व बताया गया है इन सबकी वजह से बेटियां अपने ही घरों को अपना नही कह पाती उसे पराई वस्तु माना जाता तो ‘पितृपक्ष’ का विरोध किया सवाल उठाया कि सिर्फ ‘पितृपक्ष’ क्यों, ‘मातृपक्ष’ क्यों नहीं ? इस तरह उन्होंने धीरे-धीरे भारतीय समाज के हर एक पर्व, तीज-व्रत, त्यौहार, हर एक रवायत, हर एक रीति पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया कि ये सब पितृसत्ता की उपज अतः इन्हें समाप्त करना जरूरी है

पर, ये सब लिखते समय वे ये भूल जाती कि कोई भी सन्तान बिना माता-पिता के जन्म नहीं ले सकती अतः दोनों की भूमिका बराबर यहाँ तक कि जब प्रकृति ने भी सम सहभागिता निर्धारित की तो फिर कोई एक किसी तरह से अपने सर्वश्रेष्ठ कह सकता और हमारे यहाँ ‘पितृ’ का अर्थ केवल ‘पिता’ से नहीं बल्कि, इसमें दोनों सम्मिलित होते है इस पक्ष की अलग-अलग तिथियों में सबके निमित्त श्राद्ध कर्म किये जाते चाहे माता हो या पिता या दादा या दादी कोई भेदभाव नहीं होता सभी मृतात्माओं की शांति हेतु उनकी तिथि के अनुसार पूर्ण विधि-विधान से श्राद्ध किया किया जाता है

इस सोलह दिवसीय ‘पितृपक्ष’ का एक दिन तो पूर्णतया मातृशक्ति को समर्पित है ‘मातृ नवमी’ के नाम से जाना जाता है और ये आज ही है जिसमें भी पुत्रवधू अपनी परलोकगामिनी माता व सास की आत्मशांति हेतु श्राद्ध करती है इसमें वह उनको श्रद्धांजलि ही नहीं देती बल्कि, उनके लिये वैदिक रीति से सभी धार्मिक कृत्य भी करती है इसके अतिरिक्त मातामह श्राद्ध के दिन बेटियां भी श्राद्ध की अधिकारी होती है और इस बारे में हिंदू धर्म ग्रंथ, धर्म सिंधु सहित मनुस्मृति और गरुड़ पुराण भी महिलाओं को पिंड दान आदि करने का अधिकार प्रदान करती है ।         

इसलिए किसी भी रवायत पर सवाल उठाने से पहले उसे जान ले उसके अलावा सिर्फ प्रश्न नहीं करें समाधान भी सुझाये कि वर्तमान परिस्थितियों में इसका निवारण किस तरह किया जा सकता केवल पितृसत्ता को दोष देने या उस पर ऊँगली उठाने या उसको गरियाने से कुछ नहीं होगा जो भी रिवाज आज के आधुनिक समय में प्रासंगिक नहीं उसके लिये विकल्प भी सामने रखने होंगे तभी हम विकसित होंगे इस तरह लड़ते-झगड़ते रहे तो कोई बदलाव नहों होगा पुराने दौर भी नजर डाले तो ऐसी अनेक कुरीतियाँ व बुराइयाँ आज समूल नष्ट हो चुकी जो कभी सर्वमान्य ही नहीं प्रचलित थी तो आज भी जो अनावश्यक या अ-प्रासंगिक हो उन्हें दरकिनार करते हुये आगे बढने में कोई बुराई नहीं पर, खुद के दामन पर ही कीचड़ उछालना तो सही नहीं इसलिये अगली बार जब भी ऐसा कोई मौका आये तो ‘पितृसत्ता’ या ‘पुरुषों’ को गलत कहने की जगह उसका निदान प्रस्तुत करें

वैसे यदि सभी रीति-रिवाजों, तीज-त्यौहारों एवा, परम्पराओं पर गौर करें तो पायेंगे कि उनमें सभी तरह के आयोजन पति-पत्नी दोनों को साथ में करने के लिये इंगित किया गया हैं साथ ही पुत्र-पुत्री की जगह अधिकांशतः सन्तान का प्रयोग किया गया फिर पता नहीं कब कैसे घर के भीतर के सारे दायित्व अकेले स्त्री के हाथों और सारा बाहर के सभी कार्यों का भार पुरुषों के कंधे पर आ गया अतः इस परिपाटी को यदि बदलना भी है तो उसके लिये उसके लिये किसी को गलत कहने की जगह उसे सही करने का तरीका बताया जाये ताकि, दोनों मिलकर इस व्यवस्था को बदल सके क्योंकि, ये पर्व-उत्सव जीवन में उत्साह-उमंग, जोश-ऊर्जा संचारित करने व एकरसता के माहौल को बदलने के लिये होते न कि कमी निकलकर इसके आनंद को बेमजा करने तो हर त्यौहार और खीझने की जगह रीझने का प्रयास करें क्रोध प्रकट करने से तो मानसिक तनाव ही होगा जबकि, मुस्कुराकर शामिल होने से तन-मन सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण हो जायेंगे... बाकी मर्जी आपकी... आखिर, दिमाग आपका ही है चाहे उसे शांत रखे या... ☺☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
०३ अक्टूबर २०१८

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