गुरुवार, 4 अक्तूबर 2018

सुर-२०१८-२७५ : #अपना_हक_जो_मांग_नहीं_सकते #उन_मूक_जानवरों_की_आवाज़_हम_बने




एक दिन शाम के समय महात्मा गांधी अपने आश्रम में प्रार्थना में लीन थे कि तभी एक बड़ा-सा साँप उनकी पीठ पर चढ़ गया और वही बैठा रहा । तब ध्यान में डूबे गाँधीजी ने अपनी प्रार्थना खंडित नहीं होने दी बल्कि, उन्होंने अपनी खादी की चादर के पल्ले को धीरे से खोला और खुद थोड़े आगे खिसक गये । जिससे साँप पीठ पर से उतरा और एक तरफ को चला गया तब प्रार्थना समाप्त होने पर गांधीजी ने सब साथियों को समझाया कि हम साँपों की बड़ी बस्ती के बीच उनके मेहमान की तरह रहने आये हैं । उनके साथ हमारा व्यवहार वैसे ही होना चाहिए जैसे मेहमान का होता है, छोटे से लेकर बड़े तक साँपों को कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए क्योंकि, साँप हमारे मित्र हैं ।

दरअसल, गांधी जी ने साबरमती नदी के तट पर सन १९१७ में ३६ एकड़ क्षेत्र में ‘साबरमती आश्रम’ की स्थापना की थी । उस समय इस जगह बड़ी संख्या में सांप रहते थे तो गांधी ने जो सबसे पहली बात कही थी वह यह कि इनमें से किसी को भी मारा नहीं जाएगा । सन् १९१७ से १९३० तक गाँधीजी की देखरेख में साबरमती का सत्याग्रह आश्रम चला और अगले १३ वर्षों तक यह गांधी की कर्मभूमि बनी रही । आश्चर्य ही कहा जायेगा कि इन १३ सालों तक दोनों तरफ से अपने-अपने धर्म का परिपूर्ण पालन हुआ ।

अभी 2 दिन पूर्व ही इस महामानव की जयंती हम सबने मनाई जिनके जीवन का ये एक छोटा-सा प्रसंग है जो हमें बताता कि जब करुणा इंसान के मन में निवास करती तो वह समस्त जीवित प्राणियों के प्रति कोमलता का भाव रखता और उन्हें मारने की बात तक नहीं सोचता जिसे उन्होंने केवल कहा नहीं अपने जीवनकाल में साबित कर के भी दिखाया था । एक हमारा स्वार्थपने का भीषण दौर है जहां मानव को मानव की ही फिक्र नहीं तब जानवर के विषय में वो किस तरह विचार कर सकता उस पर यदि उसकी जुबान को उसके मांस का स्वाद लग गया हो और उसकी जेब को उसकी दलाली से मिलने वाले पैसों का लालच छू गया हो तब उसे दरिंदा बनने से कोई नहीं रोक सकता

तब ही तो हम मनुष्यों ने इन निरीह बेजुबान जानवरों से उनका आश्रय स्थल ही नहीं उनका जीवन छीनकर भी साबित कर दिया है । हमारे अंदर उतनी दयालुता ही नहीं जितनी ‘महात्मा गांधी जी’ के अंतर में थी तो उन्होंने इस तरह से अपने आश्रम का निर्माण किया जिससे कि सांपों या अन्य वन्य जीवों को हानि न पहुंचे इसलिये वहां जानवर मिलकर रहते थे क्योंकि, वे भले मूक होते पर भावनाओं से परिपूर्ण होते तो हमारी संवेदनाओं को समझते जिसके कारण हमारे साथी बन जाते हम केवल अपना मतलब समझते और यदि उनको मारकर हमारा कार्य पूरा हो रहा तो हम हिचकते नहीं इसलिये हम वन, नदी, पेड़, पहाड़, झरने, गुफाएं जो भी उनके रहने के स्थान थे सब उनसे छीन लिए अब बस, हम अकेले है शेष कुछ प्रजातियां जो हमारे शिकार से अब तक बची है

ज्यादा दिन कि वे भी विलुप्त हो जाये जिस तरह बहुत सी किस्में अब नजर नहीं आती पर, हमें तब तक कोई फर्क नहीं पड़ता जब तक उसका कोई सीधा असर हमारे जीवन पर नहीं पड़ता इसका मतलब तो यही हुआ न कि, हम महसूस नहीं कर पा रहे कि नदी-तालाब, सड़कों, जंगलों में बढ़ते प्रदूषण की एक वजह ये भी है क्योंकि, इनकी वजह से पर्यावरण में संतुलन बना रहता है जो अब प्रतिदिन गड़बड़ा रहा फिर भी हम गाफिल कि अभी कौन-सी प्रलय आ रही जब कि जब देखेंगे पर सोच न पा रहे कि तब हमारे पास नष्ट होने के सिवाय कोई दूसरा विकल्प नहीं होगा ।

अब शायद, गिनती के ही घर बचे हो जहां पहली रोटी गाय की तो आखिरी कुत्ते की बनती हो, जहां चिड़िया-कबूतर, कौवे, तोते के लिए दाने बिछाये जाते हो, मछलियों-चींटियों को आटे की गोलियां या दाने डाले जाते हो, जहां वृक्ष लगाए जाते हो ताकि अनगिनत कीट-पतंगे, पक्षी-जानवर रह सके । हमारे पूर्वजों ने प्रकृति व जानवरो के साथ सह-जीवन की परंपरा विकसित करने ही इस तरह की आदतें डाली ताकि, हम सिर्फ अपने बारे में ही न सोचें पर, हमें पता न चला कब हम इतने आत्मकेंद्रित हो गये कि हमारे जन्मदाता ही हमें बोझ लगने लगे ऐसे में इन बेबस, लाचार, दीन-हीन मूक जानवरों के बारे में कौन सोचे शायद, एक दिन ही सही हम ये ख्याल कर पाये कि ये धरती, गगन ये सारा जहां सिर्फ हमारे लिए नहीं रचा गया इस पर सबका हक है उन जानवरों का भी जिनके घर हमने छीन लिये है

आज 4 अक्टूबर ‘वर्ल्ड एनिमल डे’ पर हम उनके प्रति अपने दिल में एक स्थान बनाये फिर हमारे आस-पास बनने में समय न लगेगा यही तो इसका उद्देश्य भी है तो ‘वर्ल्ड एनिमल डे’ इस तरह मनाये हम, जानवरों को भी अपना बनाये हम... तब होगी सच्ची बधाई तब तक बचाने की करें तैयारी... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
०४ अक्टूबर २०१८

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