शनिवार, 13 अक्तूबर 2018

सुर-२०१८-२८४ : #फ़िल्मी_दुनिया_उदास_है #नहीं_पास_उसके_उसकी_माँ_है




इस पीढ़ी का तो पता नहीं पर, उसके पहले वाली उन्हें सदी के महानायक ‘अमिताभ बच्चन’ की फ़िल्मी माँ के रूप में बहुत अच्छी तरह से पहचानती है तो उससे भी पहले की पीढ़ी की आँखों में वो ‘दो बीघा जमीन’ की ‘पारो’ के में समाई हुई और उससे भी आगे बढ़े तो जो पीढ़ी नजर आती उसके लिये वो जगत जननी माँ ‘पार्वती’ का फ़िल्मी स्वरुप है

एक ‘निरूपा रॉय’ ने अपने फ़िल्मी कैरियर में सिर्फ अनगिनत भूमिकायें ही नहीं अभिनीत की बल्कि, बदलते दौर के साथ अपने आप को बदलती गयी और उस समय की जनरेशन को अपने साथ लेकर चलती चली गयी तो लगातार पीढ़ी-दर-पीढ़ी वो अपने दर्शकों की चहेती रही इस तरह उन्होंने अपनी उम्र की एक लम्बी अवधि हिन्दी सिने जगत को समर्पित कर दी जिसमें अपनी वय के अनुसार अपने किरदार भी बदलती गयी जो उनकी पहचान बन गये

वो एक ऐसे कालखंड में इस मायावी जगत में आई जबकि, स्त्रियों के लिये फिल्मों में काम करना हेय समझा जाता था पर, उन्होंने एक विज्ञापन के जरिये इस पेशे में अपने आपको आजमाने के लिये जब कदम बढाये तो अहसास हुआ कि वो तो अभिनय करने के लिये ही जन्मी है तो एक के बाद उनको ऐसे रोल मिलते चले गये जिन्होंने उन्हें यहाँ एक नामचीन हस्ती के रूप में ही नहीं एक संवेदनशील अभिनेत्री के रूप में भी पूर्ण रूप से स्थापित कर दिया

उनके पतिदेव ‘किशोर चंद्र बलसारा’ को फिल्मों का बेहद शौक था पर, वे एक पारंपरिक पत्नी होने के नाते इसे पसंद नहीं करती थी लेकिन, धीरे-धीरे पति की संगत में जब थियेटर आदि में जाना शुरू किया तो फिर उनकी मानसिकता बदलती गयी फिर एक दिन एक गुजरती फिल्म ‘रनकदेवी’ के कलाकारों की आवश्यकता हेटी विज्ञापन छपा जिसके लिये उनके पति ने आवेदन किया और साक्षात्कार में अपनी पत्नी के साथ वहां गये तो उनकी जगह उनकी पत्नी को नायिका के रूप में साइन कर लिया गया पर, किसी वजह से वो फिल्म तो नहीं बनी मगर, दूसरी फिल्म ‘गणसुन्दरी’ में उन्हें मुख्य भूमिका मिली जो हिट हुई तो वे अपनी पहली ही फिल्म से स्टार बन गयी

इसके बाद ‘हर-हर महादेव’ में ‘पार्वती’ के रूप में उनको सर्वाधिक पसंद किया गया फिर ‘वीर भीमसेन’ में ‘द्रोपदी’ बनी तो उसे भी सबने सराहा तो १९५१ से १९६१ तक लगभग एक दशक तक वे फ़िल्मी पर्दे पर नायिका के रूप में छाई रही जिमें धार्मिक, सामाजिक सभी तरह की फिल्मों में उन्होंने अभिनय के नये कीर्तिमान रचे और १९५२ में बनी ‘सिन्दबाद द सेलर’ में तो उन्होंने ‘खलनायिका’ बनकर भी अपनी बहुमायामी अभिनय का प्रदर्शन किया

के जब माँ या भाभी के पात्र निभाते हुये भी उनको तीन बार सह-नायिका के फिल्म फेयर अवार्ड से नवाजा गया और उनकी ‘दो बीघा जमीन’ ने तो उन्हें देश ही नहीं विदेशों में भी मशहूर शख्सियत बना अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रसिद्धि दी जिसकी एक झलक देखने को उनके प्रशंसक लालायित रहते थे और जब वे माँ के रूप में अवतरित हुई तो उन्होंने फ़िल्मी माँ के लिये ऐसे मापदंड गढ़ और शिखर गढ़ दिये जिस पर खरे उतरकर ही कोई चरित्र अभिनेत्री उस पद पर विराजमान हो सकती थी

इसलिये आज भी उनके उस रूप को भूला पाना ना-मुमकिन है और ‘दीवार’ फिल्म में ‘शशि कपूर’ द्वारा गर्व से बोले गये संवाद ‘मेरे पास माँ है’ के द्वारा तो वे सदैव सबके जेहन में अंकित व जीवित रहेगी यूँ तो उनका फिल्मों में आना महज संयोग था फिर भी जब वे यहाँ आ गयी तो फिर उन्होंने पूर्ण मन से अपने प्रत्येक पात्र को रजत पर्दे और जीवंत किया जिसका प्रभाव हम आज भी उनकी फिल्मों में देख सकते है

१३ अक्टूबर २००४ को वे हम सबको छोडकर चली गयी और फ़िल्मी दुनिया को भी अपनी माँ के बिना जिस सूनेपन का अहसास होता वो उसे व्यक्त नहीं कर सकता पर, ‘माँ’ शब्द का पर्याय बनकर वे सदैव अपने चाहने वालों के बीच जीवित रहेंगी आज पुण्यतिथि पर उनका पूण्य स्मरण व नमन...       

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
१३ अक्टूबर २०१८

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