सोमवार, 29 अक्तूबर 2018

सुर-२०१८-२९० : #वास्तविक_नारीवाद_का_चेहरा_बनी #कमलादेवी_चट्टोपाध्याय_इतिहास_में_यूँ_उभरी




आज भी जब देश की अधिकांश प्रगतिशील महिलाओं को ‘फेमिनिज्म’ का वास्तविक अर्थ नहीं पता और वो इसे दैहिक स्वछंदता, यौनेच्छा पूर्ति, आधुनिक सोच, पाश्चात्य सभ्यता, अर्धनग्न परिधान, आर्थिक स्वतंत्रता या लैंगिक समानता या पितृसत्ता से मुक्ति में ही तलाशती है वही इस धरा पर कुछ स्त्रियाँ ऐसी भी हुई जिन्हें न तो इस शब्द के मायने पता थे न ही वो ऐसी किसी मुहीम का हिस्सा ही रही लेकिन, उन्होंने अपने जीवन में कुछ ऐसा किया जिसने ये दर्शाया कि ‘फेमिनिज्म’ कोई सुनियोजित या तयशुदा प्रारूप नहीं जिसे अपनाकर उसे हासिल किया जा सकता बल्कि, ये तो देश, काल, परिस्थिति के अनुसार बदल जाता अतः हमें पश्चिम की विचारधारा को उनके नहीं अपने चश्मे से देखना चाहिये तभी वो भारतीय परिवेश में सफल हो सकता है

किसी भी औरत के जीवन में सही समय पर अपने लिये निर्णय लेकर धारा के विपरीत चलना लेकिन, न तो किसी को नीचा दिखाना और न ही पुरुष समाज को कोसना या अपनी नाकामियों का दोष देना केवल अपने पथ पर सतत चलते जाना और तयशुदा मुकाम पर पहुँचाना जहाँ जाकर उसे अहसास हो कि उसने जो कुछ किया उसके द्वारा उसने इतिहास रच दिया हैं अनजाने ही उसने अपने देश की नारियों को निश्चित परिपाटी से हटकर चलने का नवीन सूत्र दे दिया हैं जबकि, आज बहुत-सी स्त्रियाँ ये सोचकर कि वो अपने सम्पूर्ण जीवन में कम से कम कोई एक ऐसा कारनामा कर दे जिससे कि उनका नाम चाँद की तरह गगन पर चमक जाये वो कोई सुपर सितारा या आइकॉन बन जाये तब भी कुछ हासिल नहीं कर पाती

इसकी वजह ये है कि वे बीच मार्ग में पड़ने वाली मनमोहक गलियों में भटक जाती जो उन्हें लुभाकर माय बॉडी माय रूल्स, माय लाइफ माय चॉइस, अगेंस्ट पेट्रिओर्की, नो ब्रा- नो पेंटी डे जैसे फ़िज़ूल अभियानों की भूलभुलैया में उलझा देता और वो कुछ इस तरह के #tag को किसी जोरदार क्रांति का आगाज़ समझ उसका हिसा बन जाती जिससे उसकी राह ही नहीं मकसद भी खो जाता इसलिये इतने सालों में भी हम देखते कि ‘रियल फेमिना’ वही बनती जो इन सबसे परे अपने नैतिक मूल्य, अपनी परंपरा, अपनी वैयक्तिक पहचान, सभ्यता-संस्कृति, जन्मभूमि, मातृभाषा हर एक वो चीज़ जो गौरव की वस्तु उसे बिना झटके और जो उसके पथ की बाधक उन सब कुरीतियों से पल्ला छुड़ाकर अपने साथ लिये चलती अनजाने ही नारीवाद का चेहरा बन जाती है        

ऐसी ही एक प्रगतिशील नारी थी ‘कमलादेवी चट्टोपाध्याय’ जिनका जन्म 3 अप्रैल 1903 को मैंगलोर में हुआ और वे बचपन से ही बुद्धिमान थी उनके जीवन में बचपन से ही ऐसी घटनाएँ हुई जो किसी भी लड़की को कमजोर करने या उसके हौंसले तोड़ने काफी थी वो भी उस जमाने माँ जबकि, लडकियों को न तो बोलने या चुनने की आज़ादी थी और न ही अपने दम पर कुछ कर दिखाने की तो ऐसी हालातों में जब वो केवल सात बरस की ही थी कि उनके पिता का देहांत हो गया और उनकी उम्र 14 होते ही उनकी शादी करा दी गई उसके बाद भी कठिनाइयाँ कम न हुई और वे दो साल बाद ही विधवा हो गईं

जिसके बाद उनका असल संघर्ष या वो लड़ाई शुरू हुई जिसने उनको उनके नाम से पहचान दिलाई उन्होंने पहले तो पढाई पर फोकस किया और क्‍वीन मैरी कॉलेज में पढ़ने के दौरान ही उनकी दोस्‍ती 'स्‍वर कोकिला' सरोजनी नायडू की छोटी बहन सुहासिनी चटोपाध्‍याय से हो गई और सुहासिनी ने अपने छोटे भाई ‘हरिन’ से उनको मिलवाया जो एक कवि व नाटककार थे जैसा कि हम जानते है उस वक्‍त का समाज विधवा विवाह के सख्‍त खिलाफ था इसके बावजूद भी तमाम मुश्किलों को झेलते हुए कमला देवी ने 20 साल की उम्र में हरिन के साथ शादी की और उसके बाद दोनों ने मिलकर कई नाटक और स्‍किट तैयार किए यही नहीं ‘कमला देवी’ ने अपने जीवन में कुछ फिल्‍मों में भी काम किया वो भी उस वक़्त जब अच्‍छे घर की लड़कियों और महिलाओं का फिल्‍मों में काम करना अच्‍छा नहीं माना जाता था इस तरह उन्होंने निश्चित राह से अलग अपनी पगडंडी बनाई और जिस पर चलकर वे अपने पति के साथ लंदन शिफ्ट हो गईं

यहाँ पर भी वे खाली नहीं बैठी लंदन यूनिवर्सिटी से उन्‍होंने सोशियोलॉजी में डिप्‍लोमा हासिल किया इसी बीच 1923 में जब उनको महात्‍मा गांधी के ‘असहयोग आंदोलन’ के बारे में पता चला तो वे तुरंत भारत लौटी और आंदोलन का हिस्‍सा बन गईं इस तरह की गैर-सरकारी गतिविधियों का हिस्सा बनकर नमक कानून तोड़ने के मामले में बांबे प्रेसीडेंसी में गिरफ्तार होने वाली वे पहली महिला बनी स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण वे चार बार जेल गईं और पांच साल तक सलाखों के पीछे रहीं और यही नहीं उन्होंने तो मद्रास विधानसभा का चुनाव भी लड़ा हालांकि वो इसमें हार गईं पर, फिर भी कीर्तिमान रच दिया क्योंकि, विधान सभा का चुनाव लड़ने वाली वो पहली भारतीय महिला थी

इसके बाद उन्होंने ‘ऑल इंडिया वुमेन कांफ्रेस’ का गठन किया व सामाजिक सुधार के मद्देनजर कई कार्यक्रमों की शुरुआत भी की तथा उन्‍होंने होमसाइंस की पढ़ाई के लिए दिल्‍ली में ‘लेडी इरविन कॉलेज’ की स्‍थापना की जो कि उस वक्‍त भारत में अपने तरह का पहला कॉलेज था जब 1947 में देश आज़ाद हुआ तो आजादी के बाद भारत-पाकिस्‍तान के बंटवारे के वक्‍त कमालादेवी ने शरणार्थियों को बसाने हेतु महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई जिसके तहत उन्होंने ‘फरीदाबाद’ शहर का निर्माण कर करीब 50 हजार शरणार्थ‍ियों को बसाया और 1950 के दशक में असंगठित क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की यही नहीं उन्‍होंने कई सारे क्राफ्ट म्‍यूजियम खुलवाए और इसके साथ-साथ ही ‘नाट्य इंस्‍टीट्यूट ऑफ कथक’ (बंगलुरु), नेशनल स्‍कूल ऑफ ड्रामा (नई दिल्‍ली) और संगीत नाटक अकादमी खोलने का श्रेय भी उन्‍हीं को जाता है

उनके इन अद्भुत कार्यों के लिये उन्हें कई पुरस्‍कारों से सम्‍मानित भी किया गया जिनमें पद्म भूषण (1955), पद्म‍ विभूषण (1987), रमन मैगसेस अवॉर्ड, संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप और रत्‍न सदस्‍य शामिल हैं उनके द्वारा हस्‍त शिल्‍प को बढ़ावा देने के लिए उन्‍हें 1977 में यूनेस्‍को ने सम्‍मानित किया अपनी अंतिम साँस तक वे देश व समाज सेवा में जुटी और 29 अक्‍टूबर 1988 को 85 साल की उम्र में उनका निधन हुआ आज उनकी पुण्यतिथि पर उनको ये शब्दांजलि... !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
३० अक्टूबर २०१८

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