सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

सुर-२०१८-२९२ : #जंगे_आज़ादी_का_एक_नाम #शहीद_अशफ़ाक_उल्ला_खान



बहुत ही जल्द टूटेंगी
गुलामी की ये जंजीरें
किसी दिन देखना आजाद
ये हिन्दोस्ताँ होगा...

अपनी डायरी के पन्नों में अपनी ख़्वाहिश को यूं बयां कर गये स्वतंत्रता संग्राम के एक क्रांतिवीर जिन्होंने केवल अपनी जन्मभूमि की आज़ादी के लिये ही नहीं हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिये भी अंतिम क्षणों तक अपना योगदान दिया क्योंकि, वे जानते थे कि मज़हब अलग होने से अहसास जुदा नहीं होते

गुलामी की जंजीरें सिर्फ किसी एक विशेष समुदाय को ही नहीं चुभती ये तो हर उस इंसान को असहनीय पीड़ा देती जो अपने ही घर में कैद कर दिया गया हो तो तिलमिलाने की जगह वो इनको तोड़ने की जुगत करता और बचपन से ही खुद को ऐसे माहौल में पाने वाले अशफाक उल्लाह खान ने भी वही किया

22 अक्टूबर 1900 को उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर के एक गांव में जन्म लेने वाली इस पाक रूह ने जब अपने वतन के लोगों को आज़ादी के लिए संघर्ष करते व मरते देखा तो उनके मन में भी अपनी मातृभूमि के लिए कुछ कर गुजरने की इच्छा पैदा हुई ताकि, भले इस संग्राम में वो अपनी जान गंवा दी लेकिन, अपने देश को तो इस जिलालत से मुक्त करा दे जिससे कि आने वाली नस्लें तो खुली फिजा में सांस ले सके

ऐसी सोच के साथ उन्होंने बाल्यकाल से अपने जीवन की गति व दिशा तय कर ले अतः संगत भी ऐसी चुनी जो उनके लक्ष्य में सहायक हो न कि बाधक याने कि उनके गहरे मित्र रामप्रसाद बिस्मिल जिनके साथ रहकर उन्होंने केवल शायरी ही नहीं सीखी बल्कि, जंगे आज़ादी में किस तरह से अपनी भूमिका का निर्वहन करना ये ज्ञान भी प्राप्त किया जिसकी वजह से वे काकोरी कांड को अंजाम दे पाये

हालाँकि इस कारण उन्हें फांसी के फंदे पर भी झूलना पड़ा लेकिन, दिल में हौंसला बुंलन्द और सीने में अपने वतन के प्रति अगाध प्रेम का जज्बा भरा हुआ था तो माथे पर शिकन आये बगैर ही वे कांटो भरे उस पथ पर निकल पड़े जिसकी चुभन इसलिये सहते रहे कि हम जैसे लोगों पर परतंत्रता के उस जानलेवा कहर की आंच तक न आये हम सुरक्षित रहे हमारी संततियां बेफिक्र होकर अपना जीवन गुजार सके

आज़ादी के बाद मगर, हम इतने बेपरवाह हो गये कि जिन्होंने हमें ये आशियाना दिया जिन्होंने हमारी राह में फूल बिछाये जो हमारी खातिर मर-मिट गये हम उनके नाम तक भूल गए जिस पर इतिहास से छेड़छाड़ ने तो अनगिनत प्रश्नचिन्ह लगा दिए ऐसे में कब किस की जयंती या पुण्यतिथि आई हमको होश नहीं

सोशल मीडिया पर दिन भर फालतू गुज़र जाने का अफसोस नहीं लेकिन दो मिनट उनका स्मरण करना हो या उनको मूक श्रद्धांजलि अर्पित करना हो तो हमें अपने सभी जरूरी काम और व्यस्तता याद आ जाती क्योंकि हमारी सोच ही घृणित हमें परिवेश भी वैसा ही स्वार्थी व भ्रष्टाचारी हवाओं वाला मिला जिसकी हवाओं में ही कृतध्नता घुली तो फिर हम किस तरह से वफादार बन जाये

उनको वैसा वातावरण या स्वाधीनता संग्राम मिला तो इसमें हमारा क्या कुसूर हम भी उस समय पैदा होते तो शायद वैसा ही करते इस तरह के कुतर्कों से हम अपना दामन झाड़कर अलग हो जाते और दिन गुज़र जाता वो आत्मा जरुर हमारी इस घटिया मानिसकता पर अफसोस करती होगी कि किन कमबख्तों के लिये प्राण गंवा दिये जो हमारा नाम तक भूला दिए

सारा दोष सोच का नहीं इतिहास और शिक्षा का भी है जो इन्हें वो जानकारी देता ही नहीं जो होनी चाहिए तो किस तरह से ये अपने उन शहीदों का नाम जाने जो अपनी जान कुर्बान कर गयेफिर भी जब जिनका दिवस आये उनके प्रति अपने श्रद्धा सुमन जरुर चढ़ाये... जैसे आज अशफ़ाक उल्ला खान याद आये... नमन... वंदे मातरम... ☺ ☺ ☺ !!!

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© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
नरसिंहपुर (म.प्र.)
२२ अक्टूबर २०१८

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