मंगलवार, 6 जनवरी 2015

सुर-०६ : 'विवेकानंद ज्ञान माला---०२' !!!

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मित्रों...,

१२ जनवरी १८६३, मकर संक्रान्ति के शुभ अवसर पर जब सूर्य भगवान मकर राशि में प्रवेश कर  रहे थे तभी एक दिव्य ज्योति आकाश से निकली और बंगभूमि कलकत्ता के एक समृद्ध सहृदय धार्मिक गृहस्थ परिवार की ममतामयी संतान का मुख देखने की लालसा लिये ध्यानस्थ ईश्वर से वरदान मांगती तेजोमयी मूर्ति  'भुवनेश्वरी देवी' के आंचल में शिशु बन समा गई जिससे पूरा दत्त भवनहर्षोल्लास से गूंज उठा । उसी समय उनके घर के समीप ही प्रवाहमान पुण्यसलिला भागीरथी के किनारे असंख्य नर-नारी संक्रान्ति के पुण्य पावन अवसर पर सूर्य नारायण की पूजा आराधना के लिए एकत्रित हुये थे जिनके सामुहिक मंत्रोच्चार प्रार्थना के कलरव से धरती-आकाश गूंज उठे यूँ लगा मानो सभी उनके आगमन पर हर्षित हो रहे हो वेदध्वनि से उनका स्वागत करते हो । इस तरह एक बालक के रूप में स्वामीजीका जनम हुआ और परम शिवभक्त माता ने उसे अपने आराध्य का वरदान मान वीरेश्वरनाम दिया जबकि परिजनों ने उसका नाम नरेन्द्रदत्तरखा और दुलार से नरेनकहने लगे ।    

उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्तकलकत्ता उच्च न्यायालय में अधिवक्ता थे और दादा श्री दुर्गाचरणयुवावस्था में ही सन्यास ग्रहण कर परिवार को त्याग सत्य की खोज में निकल चुके थे अतः उनके भीतर भी अपने पितामह की तरह धर्म-आध्यात्म और सर्वशक्तिमान प्रभु के प्रति एक स्वाभाविक सहज आकर्षण था । उनकी माँ प्राचीन हिंदू परंपरा का पालन करने वाली एक उदार तेजस्वी स्नेहमयी और पूरे घर की संचालक थी जो अपना अधिकांश समय ईश्वर की आराधना रामायण, महाभारत, भागवत, वेद-उपनिषदों के नियमित अध्ययन में बिताती थी अतः उनके अनेक अंश उन्होंने आत्मसात कर लिये थे जिसका परिणाम ये हुआ कि उन्होंने अपने पुत्र को उसमें लिखी हुई सदाचार और सद्व्यवहार की अनेकानेक कथायें सुनाई जिसने बालपन से ही उनका सशक्त चरित्र निर्माण किया । उनकी स्मरण शक्ति बेहद तीव्र होने से उन्होंने बाल्यकाल से ही संस्कृत व्याकरण और अनेक धार्मिक ग्रंथो को कंठस्थ कर लिया साथ ही अपनी अद्भुत तर्कशक्ति की वजह से वे हर एक बात पर प्रश्न करते और सत्य प्रमाणित होने पर ही उसे मानते थे उनके मन में मानव जाति के भेदभाव को लेकर चिंता होती थी और वो समझ नहीं पाते कि एक व्यक्ति दुसरे से उच्च किस तरह हैं ???

अपने प्रारंभिक जीवन में उन्होंने अपनी ज्ञानी माता से बहुत कुछ ग्रहण किया और आजीवन इस बात के लिये वो उनके प्रति कृतज्ञ रहे कि उनकी माँ ने ही उनमें सद्गुणों का विकास किया उन्होंने कभी भी उनकी किसी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया । उन्हें बचपन में ही कई बार ये आभास हुआ कि उनका जन्म मानवजाति के कल्याण के लिये हुआ हैं पर ये किस तरह संभव हो सकता हैं इसकी खोज और इस बेचैनी ने ही उन्हें संसारिकता से दूर रखा और यही से उनके स्वामीबनने का बीजारोपण भी हुआ जिसके लिये उन्होंने अपना पथ सबसे अलग चुना वो जिस पर भीड़-भाड़ कम होती हैं यानी कि सत्य और परोपकार का मार्ग जिसने एक साधारण बालक को असाधारण व्यक्तित्व में परिवर्तित कर दिया जो ये दर्शाता हैं कि सच्ची लगन आस्था की आंतरिक लौ जगाकर नन्ही-सी किरण को प्रखर सूर्य में बदला जा सकता हैं ।

यदि हर एक माँ इसी तरह अपने पुत्र को सत्मार्ग पर चलने का उपदेश दे और उसे स्वयं की बजाय सबके लिये जीने का सूत्र थमा दे तो उसके बल पर एक अकेला व्यक्ति भी अपने पीछे सारे विश्व को खड़ा कर सकता हैं... जैसा कि नरेंद्रने अपने जीवन में किया... वैसा हर कोई कर सकता हैं... सिर्फ़, सुप्त कर्मेन्द्रियों को ही तो जगाना हैं... :) :) :) !!!    
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०६ जनवरी  २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री

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