शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

सुर-१७ : 'पुछ रही गोरैया सवाल' !!!

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मित्रों...,

बेज़ुबां हूँ मैं
मगर, बेदिल नहीं
महसूसती हूँ सब
भले बता सकती नहीं
मेरी ची-ची समझ सको तो
जानोगे कि कितनी परेशां
कितनी तन्हां हो गई हूँ ‘मैं’ ।।
______ तुम्हारी ‘गोरैया’ ______

पहले हर सुबह पक्षियों की चहचहाहट से होती और जब हम आँख खोलते तो चिडियों का कलरव ही सुनाई देता फिर घर का आँगन हो या छत की मुंडेर या फिर पेड़ की फुनगियाँ हर जगह हर कही छोटी-छोटी प्यारी-प्यारी ‘गोरैया’ नज़र आ जाती थी हर कोई उनके लिये दाने बिखेर देता साथ प्यालियों में पीने का पानी रख देता और वो भी उस घर के सदस्यों से इतनी परच जाती कि यदि कभी वो उन्हें उनका चुग्गा देना भूल जाते तो वो बड़े हक़ से आकर रसोईघर की खिड़की के पास या सीधे भीतर धमककर जोर-जोर से ची-ची कर अपना हिस्सा मांगती और इस तरह उन दोनों के बीच एक प्यारा-सा अबोला नाता बन जाता जो इसी तरह पीढ़ियों तक चलता रहता यहाँ तक कि वे तो उन दरो-दीवारों में अपने लिये एक कोना भी तलाश लेती और इस तरह रहना शुरू कर देती कि जैसे ये उनका अपना ही घौंसला हैं और किसी को अधिकार नहीं कि वो उनके मामले में हस्तक्षेप करें और धीरे-धीरे वो हर मौसम में अपना आबोदाना उसी जगह में बना अपना परिवार बढ़ाती

अब आधुनिकता और तकनीक की इस अंधी दौड़ में नेह का ये नाज़ुक बंधन अपने-आप टूट गया क्योंकि अपनी स्वार्थान्धता में हमें अपनी सुख-सुविधा से आगे कभी कुछ दिखाई नहीं देता और हमें खबर भी नहीं कि हमारी दिन-भर बतियाने वाली ये सखियाँ न जाने कब और कैसे कहाँ गुम हो गई ??? हमें तो बस, 24×7 अपने ‘गेजेट्स’ को चलाने की फिकर रहती हैं अतः जहाँ आदमी को अपनों की परवाह नहीं वहां ये सोचने का समय किसी के पास नहीं कि इन यंत्रों को हर समय गतिमान बनाये रखने के लिये जरूरी तरंगों के जाल में ये चिड़िया न सिर्फ़ फंस गई बल्कि अब तो विलुप्त होने की कगार पर ही पहुँच गई हैं । छोटे-छोटे गाँव-खेड़ों में भले ही ये नज़र आ भी जाये लेकिन शहरो-महानगरों में तो यदा-कदा ही दिखाई देती हैं जो सिर्फ हमारे मनोरंजन के लिये नहीं बल्कि हमारे जीवन के लिये भी जरूरी हैं ताकि हम और वो आपस में तालमेल बनाकर एक-दूसरे का साथ देकर क़ुदरत के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन कर सकें ।

ये चिड़ियाँ साथ अपने हमारे जीवन से छोटी-छोटी खुशियाँ भी न ले जाये इसलिये बचा लो इन्हें सब मिलकर कि हमारी जिंदगी भी कहीं इसी तरह आस-पास बिखरी हुई इन जहरीली हवाओं की गिरफ्त में आकर न कहीं खो जाये... ये सबक हैं हम सबके लिये कि जो ज़हर इन मासूमों की जान ले सकता हैं, वो हमारी रगों में घुलकर हमें भी तो इसी तरह मार सकता हैं क्या नहीं... :( :( :( ???  
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१६ जनवरी  २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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