गुरुवार, 29 जनवरी 2015

सुर-२९ : "सूर्य-सा चमकता... 'महाराणा प्रताप'... का प्रताप...!!!"


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मित्रों...,

भारत भूमि
कदम-कदम पर
कहती कोई कहानी
गुज़र गई सदियाँ लेकिन
वो अब तक न हुई पुरानी
ऐसे ही एक अद्भुत वीर की गाथा
सुनो, आज फिर इतिहास की जुबानी ।।

सोचो अगर तो विश्वास ही नहीं होता कि आज से लगभग चार-सौ बरस पूर्व इसी धरती पर एक ऐसा महावीर शूरवीर पराक्रमी योद्धा भी हुआ जिसने अपने शौर्य बल से मुग़ल शासकों को न सिर्फ नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया बल्कि अपने अपूर्व आत्मविश्वास स्वाभिमान के लिये एक महाराजा होते हुये भी वनवासी की तरह जीवन जीने को मजबूर हो गए लेकिन अपना सर न झुकाया न ही किसी के सामने अपने आपको कमज़ोर पड़ने दिया हम सब सदियाँ गुज़र जाने के बाद आज भी अपनी पाठ्य-पुस्तकों में उनकी वो गौरव गाथा पढ़ते हैं तो आँखों में आंसू भर आते हैं और जब ये सुनते हैं कि मेवाड़ के नरेश, राजपूताना वंश के भाल का तिलक, हिंदूओं के मस्तक का मुकुट वो बलशाली घास की रोटी खाने को मजबूर हो गया लेकिन अपने धर्म का परित्याग न किया जबकि उस वक़्त हमारे यहाँ मुगलों का शासन था जिसके शासक महाराजा अकबर उन्हें अपना गुलाम और समधर्मी बनाना चाहते थे वो किसी भी हालत में अपनी मातृभूमि और अपने धर्म का मान नहीं घटाने चाहते थे इसलिये उन्होंने एक लंबे अरसे तक अकबर से युद्ध किया लेकिन उसकी बात को किसी भी हालत में स्वीकार नहीं किया जबकि उन्हें बड़ी ही कठिनतम परिस्थितियों और संघर्ष भरे हालातों का भी सामना करना पड़ा लेकिन कोई भी परीक्षा उन्हें उनके कर्तव्यपथ से डिगा न सकी यहाँ तक कि उनकी आँखों के सामने ही उन्हें अपने परिजनों  और स्वामिभक्त सेवकों की दयनीय दशा के करुण दृश्य भी देखने पड़े फिर भी वो अपने धर्म, देशभक्ति को गंवाकर जीने की कल्पना तक करने को तैयार न हुये

मेवाड़ के राजा उदयसिंह के घर पर जन्मे ‘प्रताप’ उनके सबसे बड़े पुत्र थे, जिनकी रगों में वीरता खून की तरह बहती थी और परिवार के संस्कारों ने उन्हें आत्माभिमान के साथ-साथ दया, प्रेम, अस्त्र-शस्त्र, युद्धकला की जो शिक्षा दी उसने बालक प्रताप को ‘महाराणा प्रताप’ बना दिया जिसने अपनी जन्मभूमि को मुगलों से बचाने की खातिर अपना सर्वस्व त्याग दिया, अपने धर्म को किसी भी दूसरे के धर्म से न बदलने के लिये अपनी अंतिम साँस तक लड़ते रहे जिनके साहस के सामने शत्रु टिक न सके इतिहास कहता हैं कि उनकी पहचान बना उनका भाला लगभग ८० किलो वजन का होता था जिसे पकड़कर वो रणक्षेत्र में दुश्मनों के सामने उतरते थे और उनका कवच भी लगभग इतना ही वजनी होता था फिर वो बड़ी ही कुशलता और चपलता से रणभूमि में अपने विपक्ष को टिकने न देते थे जब हम ये सुनकर उनकी कल्पना करते थे तो आश्चर्य से हमारा मुंह खुला रह जाता और हम उनकी वीरता के बारे में सोचकर दंग रह जाते हैं कि जो व्यक्ति इतना भारी भाला और कवच पहनकर लड़ता होगा उसकी ताकत का अंदाज़ा हम किस तरह लगा सकते हैं हल्दीघाटी का वो युद्ध इतिहास में आज भी इस तरह दर्ज हैं जैसे कल की ही बात हो जिसमें ‘प्रताप’ ने अपने अद्भुत प्रताप का पराक्रम दिखाकर ये बता दिया कि उन्हें छल से ही जीता जा सकता हैं धर्म की लड़ाई सत्य के अस्त्र से लड़ने पर कोई उन्हें पराजित नहीं कर सकता उनके स्वामिभक्त घोड़े ‘चेतक’ को भी हम भूल नहीं पाते जो उनकी ही तरह अदम्य इच्छाशक्ति और साहस से भरा हुआ था तभी तो ‘प्रताप’ के नाम के साथ उसका नाम भी उसी तरह जुड़ा हुआ हैं जिसे भूला पाना हमारे लिये संभव नहीं हैं और उनकी प्यारी बेटी ‘चंपा’ की भोली बातें और उस असहनीय कष्ट के दिनों का वो त्याग भी कोई कभी विस्मृत कर सकता हैं भला        

आज उनकी पुण्यतिथि के इस अवसर पर ये राष्ट्र अपने उस महावीर महानायक को शत-शत नमन करता हैं जिसकी गौरव गाथा से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं... जिसकी वीरता की दास्ताँ अब भी मेवाड़ के कण-कण में लिखी हुई हैं... और जिसकी आस्था हिंदुओ को स्वाभिमान की शिक्षा देती हैं कि अपने धर्म में भूखों मरना भी पड़े तो मर जाओ पर किसी के सोने के निवाले की खातिर अपना अनमोल धर्म न बदलो आज के धर्मांतरण को प्रेरित लोगों को उनकी ये कष्टों से भरी गाथा प्रेरणा देती हैं... स्वधर्म... स्वदेश... जन्मभूमि... मातृभूमि... सबसे महान... किसी भी हाल में उनका मान न घटने दो... नमन इस पावन सोच और इसके लिये प्राण देने वाले उस महानायक महावीर को... ‘महाराणा प्रताप’ का बलिदान... सदा रहेगा याद... नमन... :) :) :) !!!    
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२९ जनवरी  २०१५

© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री’ 

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