बुधवार, 7 जनवरी 2015

सुर-०७ : 'विवेकानंद ज्ञान माला---०३' !!!

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मित्रों...,

एक प्रसून की भांति नरेनके चरित्र की अनेकानेक पंखुडियां शनै-शनै खिलने लगी थी जैसे-जैसे दिन गुज़र रहे थे वो नित नूतन ज्ञान हासिल कर रहे थे सभी धार्मिक ग्रंथ, हिंदी, उर्दू, फ़ारसी, अंग्रेजी भाषा, पाश्चात्य दर्शन, तर्कशास्त्र, यूरोप का  प्राचीन और अर्वाचीन इतिहास, स्वर एवं वाद्य संगीत आदि का गहराई से अध्ययन करने  पर भी उनकी अंतर-आत्मा कुछ और ही तलाश रही थी । उन्होंने हमेशा महसूस किया कि कभी सहज ही अन्य युवकों की तरह उनकी प्रवृति किसी अवांछनीय कर्म की और आकृष्ट हुई भी तो किसी अदृश्य शक्ति ने उन्हें रोक दिया इससे उन्हें सदैव ही ये बोध हुआ कि उनका ये जीवन इन साधारण कर्मों में व्यर्थ गंवाने के लिये नहीं हैं अतः उन्होंने अपने लिये कठोर ब्रम्हचर्य का आदर्श निश्चित किया जिससे कि वो आध्यात्मिक शक्ति का संचय कर अपने भावी जीवन को समाज कल्याण के लिये समर्पित कर सके ।

उन्होंने हिंदू धर्मशास्त्रों में वर्णित ब्रम्हचर्यको साधकर मनसा-वाचा-कर्मणा शुद्ध आचरण पथ पर अपने कदमों को अग्रसर कर दिया जिससे कि वो ब्रम्हांड के सूक्ष्मतम तत्वों की अनुभूति कर उसे अपने भीतर उतार सके आज के जमाने के युवा यदि उनकी तरह इस मर्म को ग्रहण कर अपनी इस अवस्था को साध ले तो भले ही वो उनकी तरह एक 'युगपुरुषया 'विश्वगुरु' न भी बन सके लेकिन खुद को और समाज को तो जरुर बदल सकते हैं । आज के इस भौतिकवादी युग में सभी को ब्रम्हचर्यके ज्ञान की आवश्यकता हैं क्योंकि आज का युवावर्ग दिग्भ्रमित होने के अलावा भौतिक सुख-सुविधाओं में लिप्त होकर अनजाने में ही बहक जाता हैं लेकिन इसे आत्मसात कर लेने से न केवल इंसान अपने दुर्गुणों पर विजय पा सकता हैं बल्कि अपने आस-पास निरंतर होने वाली आपराधिक गतिविधियों पर भी अंकुश लगा सकता हैं ।

अपनी युवावस्था में नरेनभी एक सामान्य युवा की तरह ही अपने भविष्य और भावी जीवन को लेकर बहुत अधिक संशय में थे क्योंकि प्रतिदिन सोने से पहले जब भी वो ध्यान करते तो उनकी आँखों के सामने दो चित्र दिखाई देने लगते एकमें तो वो खुद को एक गृहस्थ की भांति बाल-बच्चों, धन-प्रतिष्ठा व ऐश्वर्य के बीच घिरा हुआ देखते और दूसरेमें खुद को एक त्यागी सन्यासी की तरह ईश्वर की साधना में मग्न देखते तब वे चिंतातुर होकर विचार करने लगते और उन्हें लगता कि उनके भीतर इन दोनों ही स्वप्नों को साकार करने की सभी योग्यतायें हैं लेकिन फिर जब वे इन दोनों ही जीवन की आपस में तुलना करते तो उन्हें सांसरिक भोग-विलास आकर्षित न कर पाते और मन सहज ही तपस्वी छवि की और खिंचा चला जाता । इस तरह उन्होंने गहन चिंतन-मनन से ये समझ लिया कि उन्हें भविष्य में क्या बनना हैं और किस तरह से अपने जीवन को मोड़ना हैं जिससे कि वो सही आकार ले और वे स्वयं को उस त्यागी के रूप में परिवर्तित कर सके ।

स्वामी विवेकानंदके जीवन-चरित का पठन करने से हम पाते हैं कि वो भी अपने जीवनकाल में सभी युवाओं की तरह ही अपने आने वाले कल और भविष्य के प्रति उसी तरह चिंतित व व्यथित थे परंतु उन्होंने बड़ी सावधानी-से सतत ध्यान, अध्ययन, सूक्ष्म चिंतन और सोच-विचार से उस मार्ग का न सिर्फ़ चयन किया बल्कि बिना विचलित हुये उस पर चलते रहे तभी तो वो नरेंद्रदत्तसे स्वामी विवेकानंदबन पाये... ब्रम्हचर्यका संयम से पालन... गहन चिंतन-मनन... बना सकता आदर्श जीवन... :) :) :) !!!         
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०७ जनवरी २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री

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