रविवार, 11 जनवरी 2015

सुर-११ : 'विवेकानंद ज्ञान माला---०७' !!!

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मित्रों...,

धीरे-धीरे संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप की यात्रा करने के पश्चात् उनके अंतर्मन में फिर एक द्वंद ने जनम लिया कि मैंने तो सन्यास लेकर अपना पूरा जीवन ईश्वर को समर्पित कर दिया हैं अतः मैं किसी एकांत निर्जन वन में जाकर प्रभु का स्मरण करूँ या फिर इस भ्रमण में मैंने अपने दीन-दुखी भाई-बंधुओ की जो दयनीय स्थिति देखी हैं उसे समाप्त कर इन लोगों के कष्ट दूर करने विश्वबंधुत्व की अलख जगाऊं वे एक बार पुनः अपने कर्तव्य को लेकर विचलित हो गये पर अंततः उनकी अंतर-प्रेरणा की अंतःज्योति ने असमंजस के उस क्षणिक अंधकार को हर लिया और उन्हें प्रत्येक जीवात्मा में उस सर्वशक्तिमान अदृश्य परमात्मा के दर्शन हुये साथ ही ये भान भी हो गया कि इस पीड़ित मानवता की सेवा ही उस परमपिता की सेवा हैं जिसके लिये वे इस धरती पर एक मानव के रूप में आये हैं और बस, उसी क्षण में उन्हें अपने अगले कदम और अपनी दिशा के साथ-साथ अपनी मंजिल का भी ज्ञान हो गया इस तरह उन्होंने उन्होंने अपनी सारी संचित संपदा मानव रूपी परमेश्वर को देने के लिये अपने भारतदेश से ही प्रभु के संदेश के प्रचार और जन-जागरण कार्यक्रम करने का निश्चित किया जिसके लिये वो अपनी तपस्या, अपने आत्मसंयम से अपरिमित आध्यात्मिक ऊर्जा संग्रहित कर चुके थे अब तो बस, उसे कर्म में परिणित करने का समय आ गया था   

अपनी इस यात्रा में वे ये भी जान चुके थे कि केवल ‘धर्म’ ही इस राष्ट्र का मेरुदंड हैं जिसके दम पर वो अखिल ब्रम्हांड में अपनी पहचान बना सकता हैं अतः उसी के पुनर्जागरण और पुनरुत्थान से ‘भारत’ का कल्याण हो सकता हैं । वे उस काल के लोगों की इस धारणा को भी ख़ारिज करना चाहते थे कि ‘धर्म’ की वजह से ही भारत का पतन हुआ हैं जबकि उन्होंने अपने चिंतन-मनन-दर्शन से ये निष्कर्ष निकाला कि धर्म के नाम पर होने वाली ठगी, उसकी आड़ में चलाये जा रहे पाखंड-आडंबर, फैलाये गये अंधविश्वास और भ्रामक प्रचार ने ही लोगों की ये दुर्दशा की हैं । अपने अनगिनत परीक्षण और अलौकिक ज्ञान से वे ये भी अनुमान लगा चुके थे कि भारतीय संस्कृति की साँसे त्याग-समर्पण के द्वारा ही गतिमान रह सकती हैं और केवल गिने-चुने लोग ही इसमें समर्थ हैं इसी कारण उसका लोप हो रहा हैं अतः उन्हें सर्वप्रथम सभी के मध्य ‘आत्मा में परमात्मा का वास’ संदेश का प्रचार-प्रसार करना होगा । जो भी व्यक्ति भारत के पुनर्जागरण के महान यज्ञ में अपना योगदान देना चाहते हैं उन्हें निज लाभ, स्वार्थ और पद की इच्छा का त्याग करना होगा क्योंकि यही वो शत्रु हैं जो इंसान को अपने सिवाय किसी और के बारे में सोचने या करने से रोकते हैं ।

आज भी यदि हम ‘स्वामीजी’ की इन बातों का अध्ययन करते हैं तो ये पाते हैं कि इन डेढ़-सौ वर्षों में मानवीय प्रवृति में अधिक अंतर नहीं आया हैं आज भी प्रत्येक व्यक्ति सबसे पहले अपने और अपने लोगों के फायदे की बात सोचता हैं किसी के भी मन में अपने देश के विकास और विश्वमंच पर उसकी उन्नति को लेकर न तो कही कोई अरमान होता हैं न ही उसके लिये किसी तरह का कोई प्रयास किया जाता हैं । यहाँ तक कि वे लोग जिनके हाथ में इस देश की बागडोर हैं वे भी अपने घर से आगे नहीं बढ़ पाते ऐसे में राष्ट्र उस गति से तरक्की नहीं कर पाता जैसा कि उसे करना चाहिये आज भी केवल गिने-चुने लोग ही देश के बारे में सोचते और कुछ करने का प्रयास करते हैं और जब तक सामूहिक रूप से सभी लोग काम नहीं करते हम वैश्विक परिदृश्य में पिछड़े ही रहेंगे । ये रहस्य जानने के बाद भी कोई सभी लोग एक साथ मिलाकर अपने देश को सर्वोच्च स्थान पर लाने के लिये प्रयत्न नहीं करते और जो करते भी हैं तो उन्हें रोकने की कोशिशें की जाती हैं क्योंकि अब ‘राष्ट्रहित’ का स्थान ‘स्वयंहित’ में ले लिया हैं जिससे आदमी तो संपन्न होता जा रहा हैं लेकिन देश खोखला हो रहा हैं ।

जो ये समझते हैं कि ‘धर्म’ के कारण देश का पतन हुआ हैं उन्हें ये समझना होगा कि धर्म की रक्षा से ही उसकी खुद की और राष्ट्र की सुरक्षा सम्भव हैं क्योंकि धर्म सिर्फ़ एक भावना नहीं एक कवच भी हैं लेकिन जिन लोगों ने इस पर कुरीतियों, आडम्बरों, अंधविश्वास, पाखंड का आवरण चढ़ा दिया हैं वो नहीं चाहते कि कोई उसके भीतर छुपी उसकी वास्तविकता को उज़ागर करें अतः ऐसा करने वालों का विरोध करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि इनसे ही उनकी दुकान चल रही हैं और जब व्यापारी मानसिकता के साथ कोई काम किया जाता हैं तो आदमी नफे-नुकसान के आगे सोच नहीं पाता... सदियों पहले जो हालत थी आज भी वही हैं... तब भी हम दूसरों के चश्में से दुनिया देखते थे... आज भी देख रहे हैं... हम ये आगे बढे हैं या जहाँ खड़े थे अब भी वही हैं... :) :) :) !!!    
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११ जनवरी  २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री

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