रविवार, 4 जनवरी 2015

सुर-०४ : आज फिल्म समीक्षा ‘पीके' *****

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मित्रों...,
  
बहुत शोर सुन रहे थे कि ‘धर्म’ के खिलाफ़ एक फिल्म आई हैं और हर तरफ सिर्फ उसका ही चर्चा जिसे देखो वही एक संदेश को कंप्यूटर से लेकर मोबाइल तक हर जगह घुमा रहा लोग भी बस उसे ही दोहरा रहे हैं यहाँ तक कि सरकार से भी उसे प्रतिबंधित करने मुहीम चलाई जा रही यानी कि बड़े दिनों बाद इस देश के लोगों को एक मुद्दा और करने को कोई काम मिला   सभी लोग जिसने इसे देखा या नहीं वो भी आँख मूंदकर भेड़ की तरह उस गड्डे में गिरे जा रहे जिसे न जाने किसने बनाया लेकिन दिनों दिन उसमें गिरने वालों की तादाद बढती ही जा रही यहाँ तक कि कुछ धर्मावलम्बियों को भी इसके विरुद्ध आवाज़ उठाते हुये देखा इन सब बातों से धर्म को कितना लाभ पहुंचा यह तो पता नहीं लेकिन फिल्म तो लोगों की इस खिलाफ़त की वजह से दिन दूनी और रात चौगुना लाभ कमाती नज़र आई क्योंकि अब तो हर कोई इसे देखना चाहता था इसलिये सभी सिनेमाघर की और दौड़ पड़े जिसे टिकट नहीं मिली उसने बेसबर होकर उसे नेट पर या डी.वी.डी. पर या मोबाइल पर ढूंढ-ढूंढकर देखा हमारे भी मन में कौतुहल जागा कि आखिर ये ‘राजकुमार हिरानी’ ने ऐसा क्या बना दिया उसकी शुरूआती फिल्मों से लगता तो नहीं कि इसे सस्ती लोकप्रियता की चाह हैं या फिर इसका दिमाग़ फिर गया जो कुछ बचा नहीं नया सोचने को तो जनता के मर्मस्थल को भेद दिया । ये ‘आमिर खान’ को ही क्या सूझी जो इसने मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ दिया और अब सबकी बातें सुन रहा कम से कम इससे तो ऐसी उम्मीद नहीं थी । मतलब कि इस एक फिल्म ने हर एक के भीतर उत्सुकता जगाई वजह कोई भी हो पर इसने सबको अपनी और आकर्षित किया और आख़िरकार हमें भी इसे देखना ही पड़ा क्योंकि मुद्दा इतना संवेदनशील और गर्म होता जा रहा था कि हर कोई हमसे राय भी मांग रहा था लेकिन बिना देखे आखिर हम क्या कहे, किस तरह टिप्पणी करें क्योंकि हम तो किसी भी केवल दूसरों की कहा सुनी के आधार पर बिना फिल्म देखे किसी भी तरह की कोई भी बात नहीं कह पा रहे थे और जिन्होंने देखी वो भी अधिकतर इन अफवाहों को गलत बता रहे थे ऐसे में संशय और जिज्ञासा बढती ही जा रही थी जिसे कल चलचित्र देखकर विराम दे ही दिया । जैसे-जैसे वो आगे बढ़ती गई हमारा जी चाह रहा था कि उसे ढूंढें जिसने इस अफवाह की शुरुआत की और उन सबको भी जिसने उसकी बात का बिना सोचे-समझे देखे भाले समर्थन किया जिसने अनजाने में ही कई लोगों की आस्था और भावनाओं को न सिर्फ आहत किया बल्कि गर्म दिमाग लोगों के लहू को उबाल देकर फ़िज़ूल का एक बवंडर खड़ा कर दिया जिसमें असलियत छिप गई और सिर्फ वही नज़र आया जो उन्होंने दिखाना चाहा । यदि इसने देश की 5% जनता को भी प्रभावित किया तो समग्र रूप से इसने न जाने कितने लोगों को उस अदृश्य गड्डे में गिरा दिया क्योंकि कुछ लोग तो वाकई अपने विवेक से काम लेते नहीं और दूसरों की हाँ में हाँ मिलते हुये छाया के सामान जीते हैं और वही इन अफ़वाह फ़ैलाने वालों के शिकार वही होते हैं अतः लिखना इसलिये भी आवश्यक लगा कि हमें किसी भी बात को सिर्फ इसलिये नहीं मानना चाहिए कि सब ऐसा कह रहे हैं न इसलिए उसका विरोध करना चाहिये कि आपका प्रियजन आपसे ऐसा करने के लिए कह रहा हैं बल्कि पूरी तरह से सोच-समझकर ही किसी मत के पक्ष या विपक्ष को चुनना चाहिये ।

मैं भी जो इस फिल्म के बारे में लिख रही हूँ ये केवल मेरे अपने विचार हैं जो मैं इसलिये आप सभी के समक्ष रख रही हूँ क्योंकि मैंने भी ‘फेसबुक’ और ‘व्हाट्सएप्प’ पर इससे संबंधित नकारात्मक संदेशों को ही यहाँ से वहाँ फैलते हुये देखा हैं अतः यदि मुझे लगता हैं कि ये गलत हैं तो मेरा फर्ज़ बनता हैं कि मैं अपने साथियों को भी ये बात बताऊ कि वो भी किसी की बात में आये बिना या किसी का अनुकरण करने की बजाय अपनी स्वयं की राय बनाये । सबसे पहले तो इसके ‘शीर्षक’ की बात करूं जिसके मायने के भी लोगों ने बहुत मज़ाक बनाये क्योंकि ‘पीके’ को सभी ने पीने से जोड़कर देखा और अलग-अलग अर्थ निकाले हालांकि फिल्म में भी इसे इसी अर्थ में ग्रहण किया गया हैं जो कि हम सबके उपर एक गहरा कटाक्ष हैं अमूमन हम सही बात कहने वालों को यही कहते हैं कि ‘क्या तुमने पी हुई हैं?’ वही इस फिल्म में दुसरे ग्रह से आये एक किरदार के साथ होता हैं और अनायास ही उसका नाम ‘पीके’ हो जाता हैं क्योंकि उसकी भोली और सच्ची बातों से सबको लगता हैं कि वो पिये हुयें हैं जो इस बात की और इशारा हैं कि हमारे अंदर से मासूमियत भोलापन भी गायब होता जा रहा हैं अब तो बचपन भी बचपन-सा नहीं रहा गया और फिर यहाँ तो वयस्क बच्चों-सी बात कर रहा हैं । इसके बाद उसके ‘ट्रांजिस्टर’ वाले पोस्टर की बात जिसका भी काफ़ी विरोध हुआ उस समय में हमने यही कहा था कि बगैर फिल्म देखे इसके विषय में कुछ भी कहना जल्दबाज़ी और अन्याय होगा और अब जब देखा तो लगा न तो ये गैर-जरूरी था न ही अश्लील या मुद्दे का विषय वो सिर्फ एक कल्पना हैं और निर्देशक अपने ‘एलियन’ को इसी तरह दिखाना चाहता हैं हालाँकि वो इसे कपड़ों के साथ भी दिखा सकता था लेकिन उसने उसे पूर्णतया वस्त्रहीन दिखाकर वस्त्र वालों पर जो तंज किये हैं फिर उसे उन्हें छोड़ना पड़ता । ‘एलियन’ ने नग्न होकर देखा कि जो ढंके हुए हैं उनकी चमड़ी भी उसी तरह हैं लेकिन उनकी सोच-विचार ही हैं जो उन्हें उससे अलग किये हुए हैं और शरीर के कपड़े सिर्फ़ ढंकने के लिये नहीं होते बल्कि हमारी पहचान भी बताते हैं जिससे हम किसी जाती विशेष या धार्मिक व्यक्ति की पहचान करते हैं । इस उपरी आवरण पर भी फिल्म में बड़ा करार तमाचा मारा गया हैं और मुझे तो पूरी फिल्म देखकर ऐसा लगा  कि इस फिल्म में एक भी चीज़ निरर्थक या बेकार नहीं हर चीज़ के गहरे अर्थ हैं और इतनी सूक्ष्मता से इसे बनाया गया हैं कि आपके पलक झपकने से भी कोई बड़ा अर्थवान संकेत छुट सकता हैं कहीं भी ये आपको बोरियत का या कुछ सोचने का मौका नहीं देती बल्कि बड़ी सरलता और सहजता से अपनी बात कह जाती हैं । मुझे तो ‘पीके’ के इस काल्पनिक पात्र से ‘राजकपूर’ की याद आई जिन्होंने कई चलचित्रों में इस तरह के किरदार निभाये हैं जो अपने निश्छल मासूम व्यवहार से खतरनाक खलनायक का हृदय परिवर्तन भी कर देते हैं और इस फिल्म में तो एक भी खलनायक नहीं बल्कि उन्होंने तो उन धर्म के व्यापारियों को ही कटघरे में खड़ा किया हैं जो लोगों को धर्म का भय दिखाकर अपने उल्लू सीधा करते हैं शायद इसलिये सबसे ज्यादा तकलीफ भी उन्ही लोगों को हुई हैं । यदि ये फिल्म वाकई में किसी के विरुद्ध हैं तो वो हैं ये धर्म की दुकान चलाने वाले तथाकथित धर्म के ठेकेदार जो झूठी बातों और आदमियों की धर्मिक भावनाओं का फायदा उठाकर अपना साम्राज्य खड़ा कर लेते हैं इसलिये वही इसे घुमा-फिराकर धार्मिक जनों पर आरोपित कर रहे हैं अतः हम सभी को आँख खोलकर देखने की जरूरत हैं कि इससे नुकसान किसका और फ़ायदा किसे हैं ??? तब शायद हम समझ पायेंगे कि हमें हमेशा ही घुन की तरह पिस दिया जाता हैं जबकि इसका असर हम पर नहीं किसी और पर होता हैं ।

जिसने भी इसे ‘हिंदू धर्म’ के खिलाफ़ प्रचारित किया असल में शायद वही इसको नहीं समझता अन्यथा ऐसी बात नहीं कहता क्योंकि इसमें तो हर धर्म की सही-गलत बातों का जिक्र हैं चूँकि ज्यादातर कर्मकांड हमारे यहाँ होते हैं इसलिये उन्हें ज्यादा दिखाया गया हैं पर कही भी ये नहीं कहा गया कि ऐसा मत करो बल्कि ये कहा गया कि सिर्फ किसी के कहने पर या किसी भय से इनका पालन न करो जैसा कि अक्सर हमसे कोई भी बड़ा धर्म पुजारी कह देता हैं कि यदि हम ऐसा करे तो हमारा काम बन जायेगा और न किया तो हमारा नुकसान हो जायेगा केवल उसे न मानने की बात कही गई हैं वो भी बड़े तर्कपूर्ण ढंग से पर जिन्होंने सचमुच धर्म को ‘सेल्फ़ डिफेंस’ के लिये ‘स्टीकर’ की तरह चिपकाकर रखा हैं उसे ये पोल खुलती देख बुरा लग रहा हैं । मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि किसी ने भी इस फिल्म को देखने के बाद ‘डांसिंग कार’ का जिक्र तक नहीं किया जबकि उस मुद्दे को सामने लाना था लेकिन कोई नहीं बोला क्योंकि उस कार के अंदर उनकी खुद की अतृप्त इच्छाएं वासनायें छुपी हुई हैं जिसे वो ढंककर रखना  चाहता हैं इसलिये उन्हें एलियन का बिना कपड़ों में दिखना बुरा लगता हैं जबकि आपको बोलना हैं तो इस पर बोले न कि इसे बंद किया जाये इस पर रोक लगाई जाये पर किसी ने भी न तो कहा न लिखा । इसके अलावा भी इसमें कई और बहुत सारे प्रतीकों का इस्तेमाल किया गया हैं जिन्हें बड़ी बारीकी से देखने पर ही समझा जा सकता हैं तथा बेहद संवेदनशीलता के साथ इसके एक-एक दृश्य को फिल्माया गया हैं और जो कुछ भी इसमें लिया गया हैं कुछ भी आधारहीन या मात्र व्यवसायिकता के लिये नहीं हैं । हम सब भी शायद ‘धर्म’ को सही मायनों में समझते नहीं इसलिये कर्मकांडों को ही ‘धर्म’ समझकर उसके खिलाफ़ भी किसी की कोई बात स्वीकार नहीं कर पाते जबकि ‘धर्म’ न तो किसी विशेष रंग के कपड़ों से निर्धारित होता हैं न ही किसी खास पुष्प के चढ़ाने से निश्चित होता हैं न ही किसी आकार-प्रकार की मूर्ति में विराजमान होता हैं न ही किसी स्थान पर रहता हैं ये सब उसको मूर्त रूप में हमारे द्वारा  दी गई पहचान हैं जिससे हम ही आपस में एक-दुसरे को संबोधित करते हैं इसलिये ‘एलियन’ नग्न हैं उसकी कोई पहचान नहीं, कोई नाम नहीं न ही वो इन सबसे परिचित हैं इसलिये बहुत खुश हैं । हम भी तो जब दुनिया में आते इसी तरह आवरणहीन और धर्मविहीन होते हैं वो तो हमारे परिवार और समाज से हमें जो बताया जाता हैं वो हमारे दिलों-दिमाग में घर कर जाता हैं और उसके बाद ही शुरू होती हैं सारी परेशानियाँ जो हमसे हमारी वो निर्दोष हंसी-ख़ुशी छीन लेती हैं जैसे वो ‘एलियन’ भी जब हमारे यहाँ से वापस जाता हैं तो झूठ बोलना सीख जाता हैं । इतनी सारी प्यारी-प्यारी और अच्छी बातें मुझे नज़र आई इस फिल्म में कि मुझे लगा कि मैं सबको बता दूँ कि जो भी हमने इसके बारे में सुना या जाना वो गलत हैं अरे यार, हमारे कान कोई कौवा नहीं ले गया जो हम किसी और के कानों से सुने और उसे ही सच माने । बड़ी ही खूबसूरती और नाज़ुकी के साथ इसमें प्रेम को भी दिखाया गया हैं लेकिन कहने वालों ने तो उसे भी लव जिहाद का नाम दे दिया और किस तरह किसी की एक गलत भविष्यवाणी या बात हमारे जेहन में घर कर जाती हैं कि हम उसकी वजह से सच को भी नहीं देख पाते शायद यही इस फिल्म के साथ भी हो रहा हैं । यदि हम इसे देखना जाते हैं तो हमें सभी प्रचारित पूर्वाग्रहों से बाहर निकलकर और बचपन से नसों में घोली गई धर्म की घुट्टी को पिये बिना इसे देखना चाहिये तभी इसके संदेश को समझ पायेंगे ।

‘पीके’ महज़ एक फिल्म नहीं या न ही किसी अन्य फिल्म का विस्तार ही हैं बल्कि ये तो ‘धर्म’ पर एक दृश्यात्मक श्रव्यात्मक ‘शोधपत्र’ है जिसे हर किसी को देखना चाहिये... पर, भूले न ये मेरी अपनी राय हैं... आप अपनी ख़ुद बनाये फिल्म देखकर... !!!    
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०४ जनवरी  २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री

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