शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

सुर-०९ : 'विवेकानंद ज्ञान माला---०५' !!!

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मित्रों...,


नरेंद्रका अपने गुरु के रूप में श्रीरामकृष्णसे मिलना भी एक ईश्वरीय संयोग और दो महान आत्माओं का एक-दुसरे को पहचानकर अपने जीवन के उद्देश्य की पूर्ति करने का अद्भुत क्षण था लेकिन ये सब एकाएक नहीं हुआ बल्कि धीरे-धीरे दोनों ने एक-दूजे को जाना-परखा तब जाकर उन्हें ये यकीन हुआ कि वो एक साथ मिलकर जग-कल्याण कर सकते हैं । जहाँ रामकृष्णको ये अनुभूति उनसे हुई प्रथम मुलाकात में ही हो गई थी कि सिर्फ़ वही संपूर्ण जगत में उनके सर्वश्रेष्ठ संदेशवाहक हो सकते हैं वहीँ नरेनको ये समझने में थोड़ा समय लगा कि यही वो महात्मा हैं जो उसकी सभी शंकाओं का समाधान कर उन्हें उसके ध्येय की प्राप्ति में सहायक हो सकते हैं ।


उनकी जीवनी में ऐसा वर्णन आता हैं कि लगभग पांच वर्षों तक वे श्रीरामकृष्णकी हर एक बात को तर्कों की कसौटी पर परखकर देखते रहे और खुद को उनकी जीवन शैली के अनुरूप बनाते रहे लेकिन जब उन्होंने खुद को उनके शिष्य के रूप में प्रस्तुत किया तो उनके मन में किसी भी तरह का कोई भी लचीलापन या असहजता नहीं थी बल्कि इस अवधि में अपने सभी परीक्षणों से वो ये समझ चुके थे कि वही उनके वास्तविक मार्गदर्शक और आध्यात्मिक गुरु हो सकते हैं । उनकी इस बात ने रामकृष्णको भी प्रभावित किया कि उन्हें एक शिष्य मिला हैं जो किसी भी बात को केवल इसलिये ही आँख मूंदकर स्वीकार नहीं कर सकता कि वो उसके किसी पूज्यनीय ये आत्मीयजन ने कही हैं बल्कि वो स्वयं इसे परीक्षा कर देखता हैं और तर्कसंगत होने पर ही उसे मानता हैं ।

हम सभी इस बात से ये शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं कि आज जबकि हमारे आस-पास अनगिनत धर्मगुरु और तथाकथित समाज के ठेकेदार मौजूद हैं तब हम पढ़े-लिखे आधुनिक होने पर भी केवल उनके प्रभाव में आकर उनकी अतार्किक और गलत नज़र आ रही बातों का भी सिर्फ इसलिये समर्थन करते हैं क्योंकि हम उसकी सच्चाई को समझने या उसकी तह में जाने की कोशिश नहीं करते जिसका पूरा फ़ायदा ये ढोंगी लोगों उठाते हैं और हमारे अंधविश्वास के बल पर वो अपना साम्राज्य खड़ा कर लेते हैं और एक नरेनथे जिन्होंने एक सात्विक धर्मानुरागी निर्मोही सन्यासी को भी हर दृष्टिकोण से जांच-परखकर अपना गुरुदेव माना और ऐसा माना कि फिर उनके सिवा कुछ और ना जाना और अपना तन-मन-जीवन सब उनके संदेशों के प्रचार हेतु अर्पित कर दिया ।

श्रीरामकृष्णएक अलग ही प्रकार के शिक्षक थे जो अपने विद्यार्थियों पर अपने विचार या मत थोपते नहीं थे बल्कि कहते थे कि---जैसे व्यापारी लोग अपने सिक्कों की जाँच करते हैं वैसे ही तुम मुझे भी ठोक-बजाकर देख लेना, पूरी तरह से संतुष्ट होने पर ही मेरी बात पर विश्वास करना। इसलिये वो अपने उपदेशों में भी सभी से कहते कि वे पहले उन्हें अपने जीवन में उतारकर देखें उसके बाद जो भी अनुभूति हो उसे आत्मसात करें जिससे कि वो उनकी शिक्षाओं के मर्म को अपनी अंतरात्मा से महसूस कर पायेंगे और इस तरह से उनको उसे परीक्षण करने का भी अवसर मिल जायेगा । आज की शिक्षा प्रणाली में इसके उलट हो रहा हैं जहाँ हम सबको महज़ किताबी ज्ञान और रटंत विद्या का अभ्यस्त बनाया जा रहा हैं जिसकी वजह से शिक्षा का उद्देश्य भी आत्मावलोकन कर व्यक्तित्व विकास के स्थान पर केवल जीविकोपार्जन का साधन बना दिया गया हैं । यदि शिक्षक और शिष्य हो एक-दूसरे के पूरक... तो दोनों मिलकर बदल सकते जग की सूरत... और गढ़ सकते आस्था की नवीन मूरत... :) :) :) !!!    
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०९ जनवरी  २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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