सोमवार, 12 जनवरी 2015

सुर-१२ : 'विवेकानंद ज्ञान माला---०८' !!!

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मित्रों...,

अपने देश को संपूर्ण विश्व के मंच पर प्रथम स्थान पर लाने के लिये उन्होंने यही उचित समझा कि अपने देश के बाद अब विदेश जाकर वे सभी पाश्चात्य देशों के समक्ष ये इस वाद को रखे कि भारतका धर्म-सिद्धांत, आत्म-दर्शन, आध्यात्मिक विचारधारा, सांस्कृतिक विरासत, ध्यान-योग, तप-वैराग्य समस्त राष्ट्रों को भौतिकतावादी राक्षस के चंगुल से छुड़ाने में सक्षम हो सकता हैं । यदि अन्य देश भारतको अपने साथ लेकर नहीं चलते या उसकी सहायता नहीं करते और ऐसे में यदि उसका पतन होता हैं तो उसका प्रभाव अखिल ब्रम्हांड पर पड़ेगा क्योंकि सभी राष्ट्र अतिभौतिकता के शिकार हो रहे हैं ऐसे में केवल भारतही सभी को आध्यात्मिक उन्नति के लिये मोक्ष का मार्ग और सच्ची स्वतंत्रता का सिद्धांत दे सकता हैं । भारतके पास अलौकिक ज्ञान की जो अपार अपार संपदा हैं उसकी अनदेखी कर कोई भी खुद को बचा नहीं सकता इसलिए उन्होंने इसके प्रचार हेतु अमेरिकाको सर्वश्रेष्ठ देश माना क्योंकि वो जातिवाद, गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा, वर्गविभाजन, धर्मान्धता, रूढ़िवादिता से मुक्त था और नवीन विचारों के स्वागत के लिये तैयार रहता था । उन्होंने तय किया कि वे वहां जाकर उनको अपने देश का  पुरातन बहुउपयोगी ज्ञान देकर बदले में वहां से आधुनिक तकनीक और विकास की नई नीतियाँ लेकर आयेंगे जिससे कि उन्हें भी इस देश की प्राचीन धरोहर की जानकारी हो जिससे वे इसे सम्मान की नजरों से देखें और सारे जगत में भारतीय धर्म का डंका गूंज उठे ।

उन्होंने शिकागो में होने वाली धर्म महासभामें जाकर अपने देश का प्रतिनिधत्व करने की ठानी और ११ सितंबर १८९३ में उस विराट मंच पर उपस्थित होकर जब उन्होंने अमेरिकावासी बहनों और भाइयोंकहकर सभा में अपना भाषण शुरू किया तो पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा क्योंकि उन्होंने बड़े ही सहज-सरल तरीके से सभी श्रोतागणों को एक साथ संबोधित किया था । उनके वक्तव्य का मूल स्वर सर्वकल्याण, सकल उन्नति, साम्प्रदायिकता-कट्टरता-धर्मान्धता का नाश था उसमें केवल अपने ही नहीं बल्कि सभी धर्मों की बात थी जबकि इसके पूर्व सभी प्रतिनिधियों ने सिर्फ अपने धर्म का ही उल्लेख किया जबकि स्वामीजी ने अपने उद्बोधन में न तो किसी भी धर्म की बुराई की न किसी को कमतर बताया बल्कि ये कहा कि सभी धर्म जिनके नाम अलग-अलग हैं वे वास्तव में एक ही लक्ष्य की और ले जाने वाले अलग-अलग मार्ग हैं अतः सभी भेदभाव, जात-पांत छोड़कर सारे विश्व को एकमात्र मानवता के सूत्र में पिरो देना चाहिये । उन्होंने ये मत भी प्रकट किया कि किसी को भी कभी धर्मांतरण नहीं करना चाहिये बल्कि सभी को अन्य धर्मों की अच्छी बातों को ग्रहण कर अपने मूल धर्म की रक्षा करते हुये आत्म-उन्नति करना चाहिये क्योंकि अपना धर्म कैसा भी हो उसे छोड़कर दुसरे का अपनाना  खुद का विनाश करना हैं ।

इस धर्म-महासभा पूरे विश्व के सामने ये दर्शा दिया कि हर एक धर्म श्रेष्ठ हैं और सभी में आदर्श महापुरुष-महान नारियां हुई हैं कोई यदि ये समझता हैं कि सारे धर्म नष्ट हो जायेंगे और अंत में केवल उनका धर्म ही शेष रहेगा तो ये उसकी इस घृणित सोच पर हंसने के सिवा और कुछ नहीं किया जा सकता उन्होंने उच्च स्वर में कहा कि बहुत जल्द सारे विरोधी स्वर को अलग करते हुये प्रत्येक धर्म की ध्वजा पर यही लिखा होगा कि---

युद्द नहीं - सहायता,
विनाश नहीं - ग्रहण,
मतभेद और कलह नहीं मिलन और शांति ।

इस तरह उन्होंने इस अवसर का भरपूर सदुपयोग किया क्योंकि वे जानते थे कि हिंदू धर्म में समन्वय की शक्ति हैं और सभी धर्मों के लिये स्थान हैं ।

इस तरह भारत का एक युवा अपरिचित सन्यासी अचानक ही विश्व का एक विशिष्ट व्यक्तित्व बन गया शिकागो की सडकों पर स्वामीजी के आदमकद चित्र लग गये जिनके नीचे स्वामी विवेकानंदलिखा था और हजारों लोग उसके आगे ठहर जाते और सम्मान से सर झुकाते थे... इतने बरसों बाद भी हम उनके जन्मदिवस को युवा दिवसके रूप में मनाकर उनका स्मरण करते हैं कि उन्होंने मात्र चार दशक के जीवन में वो काम कर दिया जिसके लिये सौ बरस कि आयु भी कम हैं... उन्होंने युवावर्ग को जो संदेश दिये यदि वो उन्हें आत्मसात कर ले तो न सिर्फ स्वयं का बल्कि देश का उद्धार करने में सहायक सिद्ध हो सकता हैं... और इस तरह अपने आदर्श युगपुरुष महानायक को सच्ची श्रद्धांजलि दे सकता हैं... जय युवा भारत... :) :) :) !!! ____________________________________________________
१२ जनवरी  २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री

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