शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

सुर-२३ : 'सुभाषचन्द्र बोस जयंती' !!!

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मित्रों...,

नाम ‘नेताजी’
एकाएक सार्थक हो उठा
जब दिया गया ‘सुभाषचंद्र बोस’ को   
और अब तलक ये देश उनको
अपने प्यारे नेता के रूप में याद करता हैं ।।

वे सभी लोग जिन्होंने इस भारतभूमि में उस वक़्त आँख खोली जबकि भारतमाता अंग्रेजों की दासता की जंजीरों में बंधी हुई थी वाकई में अविस्मरणीय और काबिल-ए-तारीफ़ हैं क्योंकि इन्होने न केवल समय की जरूरत को समझा बल्कि उसके अनुसार अपने आपको भी बदला और ‘आज़ादी’ को अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य बनाया सुभाषचन्द्र बोस ने भी जब २३ जनवरी १८९७ में उड़ीसा के कटक नामक स्थान पर एक मध्यमवर्गीय परिवार में जनम लिया तो खुद को पैदा होते ही फिरंगियों के बिछाये जाल के भीतर जकड़ा महसूस किया और हवाओं में भी बसी गुलामी की महक ने उनकी साँसों में जाकर विद्रोह का बिगुल बजा दिया फिर भला ऐसा व्यक्ति खामोश किस तरह बैठा रह सकता था बालपन से ही अपने चारों तरफ बेबस और गुलाम लोगों पर विदेशियों को शासन करते देख देह का लहू उबाल लेने लगा था और इस सब पीड़ादायक दृश्यों ने ही उनके नाज़ुक मन पर ऐसी छाप छोड़ी कि उन्होंने ठान लिया कि एक दिन बड़ा होकर उन्हें अपनी इस जन्मभूमि की बागड़ोर को अपनों के हाथ में सौंपना हैं अपने देश को एक स्वतंत्र पहचान दिलानी हैं

आज पैदा होने वाली पीढ़ी जो स्वतंत्रता की खुली फिजाओं में न सिर्फ पैदा हो रही हैं बल्कि उसके लिये ये सब बातें मात्र एक कहानी या इतिहास की बातें होकर रह गई हैं जबकि हमें आज़ाद हुए अभी कोई सौ-दो सौ साल नहीं हुए हैं उनके लिये ये अनुमान लगाना भी मुश्किल हैं कि कभी लोगों के लिये खुलकर बोलना या हंसना तक मुहाल था उन्हें तो दूसरों के इशारों पर नचाना पड़ता था अपनी ही मेहनत की कमाई को वो खुद पर खर्च न कर सकते थे अपनी चीज़ को ही अपनी नहीं कह सकते थे और अपनी आँखों के सामने सोने की चिड़िया कहे जाने वाले अपने वतन के अनमोल खजाने को दूसरों के हाथों लुटते देखने को विवश थे इन सबने उनके अंदर के गरम लहू में जो उबाल लाया उसी का परिणाम हैं कि भले ही समय लगा लेकिन वे अपने प्यारे देश को अपनी जान की कीमत पर उन दुश्मनों की कैद से छुड़ा सके जिस पर आज हमें न सिर्फ गर्व होना चाहिए बल्कि उस सभी शहीदों के प्रति अपनी कृतज्ञता का प्रदर्शन भी करते रहना चाहिए क्योंकि इनकी बदौलत आज हम इस मुकाम तक पहुंच सके हैं

अपनी पढाई के दौरान भी अपनी योग्यता का सही मूल्यांकन न किये जाने और अंग्रेज बालकों के समक्ष भारतीयों को उपेक्षित और नीचा दिखाने की प्रवृति ने उनके बालमन को न सिर्फ चोटिल किया बल्कि उनके संकल्प को दृढ़ से दृढ़तर किया इसी जज्बे की वजह से उन्होंने युवा होकर अंग्रजों से लड़ने के लिए अपने खुद की और देश की प्रथम राष्ट्रिय स्तर की फौज़ ‘आज़ाद हिंद सेना’ का गठन किया जिसमें उन्होंने महिलाओं को भी बराबरी का स्थान दिया और अपने परचम पर दहाड़ते हुए शेर का चित्र लेकर अपने मजबूत और खतरनाक इरादों का भी चित्रण कर दिया और ‘जयहिंद’ के नारे से सबकी रगों में एक नया जोश भी भर दिया सभी देशवासियों से उन्होंने बड़े ही उग्र मगर पुख्ता लहजे में कहा कि ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा’ ये उद्घोष आज भी हम सबको प्रेरणा देता हैं और उनकी याद दिलाता हैं कि वो तो चले गये हम सबको बिन बताये न जाने कहाँ लेकिन जो भी उन्होंने सोचा था और अपने साथियों को आज़ादी का जो लक्ष्य दिया था उसे आख़िरकार अपन तन-मन देकर हासिल कर ही लिया गया... आज उनकी जयंती के इस अवसर पर हम सब उन्हें शत-शत नमन करते हैं और अपने शब्दसुमन उनको अर्पित करते हैं... जय हिंद... :) :) :) !!!
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२३ जनवरी  २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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