बुधवार, 21 जनवरी 2015

सुर-२१ : "बच्चे अपराधी... दोषी कौन ???"


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मित्रों...,

छल कपट रहित
बच्चों की दुनिया
निश्छल भावनाओं
सच्चों की दुनिया ।।

कभी दूर बैठकर देखो अबोध नन्हे-मुन्नों को आपस में बात करते हुये सुने गौर से उसमें बचपने की बातें झूठ-मूठ के मासूम झगड़े मिलेंगे लेकिन आपको कहीं भी वो सब बातें वो झूठा अहं तकरार बेमतलब का गुस्सा और दूसरे को नीचा दिखाने का कोई भी भाव नज़र नहीं आयेगा जब तक कि हम उनके मन में इन सबका बीजारोपण नहीं करते तब तक उनके बीच न तो किसी तरह का कोई भी भेद-भाव न ही उंच-नीच होती हैं वो तो एक गरीब बच्चे से भी जितने प्रेम और बेझिझक होकर मिलेंगे उतने ही स्नेह से किसी अमीर हमउम्र से भी पेश आयेंगे हमारी तरह उनके लिबास और कद या पद को देखकर उनसे बर्ताव नहीं करेंगे ये तो हम ही हैं जो उन्हें पल-पल बात-बात में टोक-टोककर उनके कोमल से दिलो-दिमाग में ये बेकार का कड़वा ज़हर भरते हैं जो एक दिन कभी किसी बेहद ही बुरे रूप में हमारे सामने आता हैं जब कि बचपन में रोपा गया वो विषवृक्ष हमें भी अपनी काली छाया के आगोश में ले लेता हैं

आजकल आये दिन हम अपराधों की घटनाओं में अधिकांशतः में किशोरों को ही अपराधी के रूप में देख रहे हैं तो क्या हम ये माने कि वो पैदाइशी ही ऐसे थे या फिर हमारे दिये संस्कारों या नैतिक शिक्षा में कोई कमी रह गई या फिर वो हालात ज़िम्मेदार हैं जिसने उन्हें ये सब करने के लिये प्रेरित किया ??? जब इस बात की गहराई से पड़ताल करें या कभी गंभीरता से चिंतन-मनन तो पाते हैं कि हर एक शिशु जब पैदा होता हैं तो वो सिर्फ़ और सिर्फ़ एक छोटी-सी प्यारी-सी मानवीय कृति होती हैं जिसके माध्यम से न केवल दुनिया आगे बढती रहती हैं बल्कि हम सबको भी अपने खोये हुये बचपन को जीने का सुअवसर मिलता हैं और साथ ही वो हमारे लिये  उसको जिम्मेदार नागरिक बनाकर इंसानियत के ऋण से मुक्त होकर अपने कर्तव्य निर्वहन का जरिया भी बनता हैं इसलिये यदि वो मानव की जगह दानव या सपूत न होकर कपूत बनता हैं तो इसके लिए कुछ अंशों में कुसूरवार तो हम भी होते हैं जिसने उसे पथभ्रष्ट होते देखा और उसकी गलतियों को नज़रंदाज़ कर उसे निर्दोष से दोषी बना दिया क्योंकि इसमें जींस / अभाव / गरीबी / माहौल आदि चीजें तो बाद में आती हैं प्रथम नंबर तो परवरिश को ही दिया जाता हैं

यदि हम ये कहे कि अक्सर गरीब और गंदी बस्तियों में पलने वाले ही इस तरह के काम करते हैं क्योंकि रोजी कमाने की मजबूरी के चलते उनके पालक उन पर अधिक ध्यान नहीं दे पाते लेकिन ये आधा सच हैं क्योंकि अब तो हर बच्चे के माता-पिता कमाई के लिये अपनी अनमोल धरोहर को वो समय भी नहीं दे पाते जिस पर कि उसका हक़ हैं ऐसे में जरूरत हैं कि आये दिन होने वाले अपराधिक मामलों में किशोरों की बढ़ती क्रूर प्रवृति की मानसिकता का गहन अध्ययन कर उन पहलुओं को समझने का प्रयास किया जाए जिसकी वजह से वो मासूम जो इन सब बड़ी-बड़ी बातों से अनजान होते हैं वो किस तरह ऐसे खतरनाक मामलों का हिस्सा बन जाते हैं जिसकी शुरुआत हम सभी को केवल अपने घरों से ही नहीं अपने आस-पास के नौनिहालों पर भी नज़र रख करनी चाहिये क्योंकि यदि सभी लोग केवल अपने ही दायरे का ध्यान रखें तो भी कुछ गतिविधियों को तो सीमित किया जा सकता हैं... कोशिश करने में क्या हर्ज़ हैं भले ही शिकार हम नहीं हैं लेकिन किसी दिन हम पर भी तो निशाना लगाया जा सकता हैं... इसलिये एक छोटी-सी कोशिश से यदि बड़ी-सी घटना को रोका जा सकता हैं तो उसे करने में कोई बुराई तो नहीं... सचमुच... हैं न... :) :) :) !!!  
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२१ जनवरी  २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री

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