शनिवार, 10 जनवरी 2015

सुर-१० : 'विवेकानंद ज्ञान माला---०६ ' !!!

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मित्रों...,

अपने गुरु के सानिध्य में कठोर तप और अभ्यास करते-करते नरेनको न सिर्फ़ अपने लक्ष्य की प्राप्ति का मार्ग मिल गया बल्कि उन्हें ये भी अहसास हो गया कि किस तरह वो अपने जीवन को जनकल्याण हेतु समर्पित कर अपनी मंजिल तक पहुंच सकते हैं । इसलिये अपने गुरु के इस संसार से जाने के बाद उन्होंने अपनी जिम्मेदारी को समझा और अपनी साधना हेतु  एकांत में एक स्थान खोजकर रामकृष्ण संघके सन्यासियों के साथ मिलकर वराहनगर मठके नाम से एक आश्रयस्थली निर्मित की जहाँ पर वे सभी साथियों के साथ सन्यासी की भांति जीवन-यापन करते । नरेनअब जी-जान से सभी को समाज की उन्नति के लिये प्रशिक्षित करने लगे साथ ही वे उनको सन्यासी जीवन की महिमा के बारे में विस्तार से बताते और त्याग-वैराग्य पर उपदेश देते जिससे कि वो खुद को भावी कठिनाइयों के लिये तैयार कर सके ।

वे रोज प्रातः काल ही सबसे पहले उठ जाते और सभी साथियों को निंद्रा से जगाने के लिए मधुर स्वर में गाते---जागो, जागो... अमृत के अधिकारी। इस एकांतवास ने उन सबके आंतरिक क्षमताओं के साथ-साथ उनकी इन्द्रियों को अपने नियंत्रण में करने में बड़ी सहायता की जिससे वे गुरुभ्राता अपने पैरों पर खड़े होने का सामर्थ्य हासिल कर सके और शीघ्र ही हाथों में दंड व भिक्षापात्र लेकर निकल पड़े जिसने उन सबके आत्मबल को दृड़ कर उनमें शरणागति की भावना जागृत की और इस प्रकार उनके परिव्राजक जीवन की शुरुआत हुई । सबसे पहले वे मोक्षदायिनी वाराणसी नगरी में गये जहाँ कि शांति और पवित्रता और अनेक संत-महात्माओं से होने वाली भेंट ने उनके मन को ईश्वरीय अनुभूति से भर दिया । इसके बाद वे अयोध्या और वृन्दावन की और बढ़ चले और हर जगह के अनुभव के साथ उनकी भक्ति भावना भी लगातार बढती गई जिसने उनके मत को पुष्ट किया कि सभी प्राणी एक ही ब्रम्ह की संतान हैं अतः हमें सबके प्रति एक समान दृष्टिकोण रखते हुये उन्हें अपना भाई-बंधु समझना चाहिये ।

भारत भ्रमण के दौरान आम आदमी की दुर्दशा और शिक्षित हिंदू को पाश्चात्य भौतिक सभ्यता के प्रति आकर्षित होता देखकर उनका हृदय द्रवित हो गया और अपनी मातृभूमि के पुनरुत्थान के लिये उन्होंने वेदों में वर्णित ज्ञान के प्रचार को उचित समझा क्योंकि वे जान गये थे कि ये पूरा जगत एक कुटुंब के समान हैं और इसमें रहने वाला हर एक जीव उस परमपिता का अंश हैं इसलिये उनके साथ भेदभाव का व्यवहार करना अन्याय हैं ।  वे प्रत्येक भारतीय की आत्मा में अपनी जन्मभूमि, अपने पालकों के किये अहसानों के कर्ज से उऋण होने की भावना का विकास करना चाहते थे ताकि वे अपने परिवार और अपने देश के प्रति अपने फर्ज़ को जान उस मार्ग का अनुसरण कर सके जिससे कि इन दोनों में संतुलन स्थापित कर सके ।

जिस भूमि पर हमने जनम लिया और जिनकी वजह से हम इस संसार में आये हमें हर हाल में उनका ऋण चुकाना हैं केवल अपने लिये जीना सबसे निम्न स्तर की जीवन शैली और सोच हैं जिससे सकल समाज का विकास संभव नहीं सबको साथ लेकर चलने पर ही हम खुद को एक परमात्मा की संतान के रूप में देख सकते हैं... हम सबको प्रभु ने बनाया... आओ हम सब उनकी सृष्टि को संवारे-सजाये... कर्जमुक्त होकर धरा से जाये... :) :) :) !!!
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१० जनवरी  २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री

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