गुरुवार, 8 जनवरी 2015

सुर-०८ : 'विवेकानंद ज्ञान माला---०४' !!!

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मित्रों...,

मानव-कल्याणऔर ईश्वरोपलब्धिको अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर लेने के बाद उसकी प्राप्ति के लिये भी नरेंद्रको बहुत यत्न करना पड़ा और इस कर्म में उन्होंने पहले ब्रम्ह-समाजका भी आश्रय लिया पर, जिस तत्व की उन्हें तलाश थी तथा जिस आध्यात्मिक उन्नति की उन्हें कामना थी वो इस मार्ग से हासिल न हो सका तो अपनी व्याकुलता से उद्दिग्न होकर वे इसके माननीय नेता देवेन्द्रनाथ ठाकुरके पास गये और बड़ी ही व्याकुलता के साथ बोले---श्रीमान, मुझे बस, इतना ही बता दीजिये कि क्या कभी अपने उस परमेश्वर का साक्षात्कार किया हैं?’ उसका ये सवाल सुनकर वे तनिक संकोच में पड़ गये और बोले---नरेन बेटा, ये आँखें तुम्हारी एकदम योगी की तरह हैं अतः तुम ध्यान का अभ्यास करो जिससे एक दिन जरुर तुम उनको इन दिव्य नेत्रों से देख सकोगे

उनकी ये बात सुन वो असमंजस में पड़ गए और ये भी समझ गये कि इस पथ पर चलने से उन्हें कभी भी मन की शांति और मुक्ति न मिल सकेगी अतः अब वे ये जान चुके थे कि उनको किसी ऐसे गुरुकी आवश्यकता थी जो न सिर्फ उसका मार्गदर्शन कर सके बल्कि उसकी  ऊँगली पकड़कर उसे उस परमपिता के प्रत्यक्ष दर्शन भी करा सके । इस काम में उनके सहायक बने उनके ही असेम्बली कॉलेजके दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर हेस्टीजो नरेनकी बौद्धिक क्षमताओं और अद्भुत प्रतिभा से अत्यंत प्रभावित थे और उसे दर्शन-शास्त्रका सर्वोत्तम छात्र मानते थे यहाँ तक कि उनका तो ये भी कहना था कि---जर्मनी और इंग्लैंड के सारे विश्वविद्यालयों में उनके समान मेधावी शिष्य और कोई नहीं। उन्होंने ने ही एक बार उसे किसी गहन विषय पर व्याख्यान देते समय कहा था कि---सिर्फ़ दक्षिणेश्वर के श्रीरामकृष्ण परमहंस ही हैं, जिन्होंने आध्यात्मिक अनुभूति की चरम अवस्था को प्राप्त किया हैं।      

इस तरह अपनी जिज्ञासा और अंतर्मन की प्रेरणा से वो अनवरत भटकते रहे जिसने आख़िरकार उन्हें वो प्रकाशपुंज दिखा दिया जिसमें प्रवेश कर उनके भीतर के सभी तमस ज्योतिर्मय हो सकते थे । उनकी ये तृष्णा ही बताती हैं कि जब तक किसी भी विद्यार्थी के अंदर इस तरह की ज्ञान पिपासा नहीं होती कि वो किसी भी पोखर के जल से अपनी प्यास बुझाने की जगह उसी महासागरको खोजता रहे जो उसे संतुष्ट कर उसके सभी प्रश्नों की ज्वाला को शांत कर सके तब तक उसे ध्येय की प्राप्ति भी नहीं होती हैं । हम अक्सर यही भूल करते हैं चाहत तो आसमान के चाँद को पाने की करते हैं लेकिन यदि वो नहीं मिले तो किसी भी जगमगाते सितारे को ही चाँदसमझ अपनी यात्रा को विराम दे देते हैं जबकि हम भी यदि नरेनकी तरह तब तक न रुके जब तक कि अपने लक्ष्य को न पा ले तो फिर क़ुदरत भी हमारा साथ देती हैं और हमें उस शक्ति, उस व्यक्ति से मिला देती हैं जो हमें पाषाण से कुंदन बना देता हैं...  जब ऐसी हो लगन... न मिटे किसी भी जल से जलन... तब होता लक्ष्य से मिलन... :) :) :) !!!
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०८ जनवरी  २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री

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