शनिवार, 25 जुलाई 2015

सुर-२०६ : "लघुकथा : जननी बनाम लेखक"


बात बहुत पुरानी हैं शायद, तब की जब से ये दुनिया बनी हैं... कोई पढ़ता हैं या नहीं इस बात की परवाह किये बिना वो रोज बिना नागा किये कुछ न कुछ लिखता था वजह किसी को नहीं मालूम पर, इसी वजह से सब उसे खुद से अलग समझते और हैरत से देखते थे लेकिन केवल वही जानता था कि ये उसका शौक या जरूरत नहीं बल्कि उसकी मजबूरी थी क्योंकि अनवरत कुछ जानी-पहचानी तो कुछ अनजानी आवाजें उसके जेहन में गूंजती थी और दुनिया के हालात, विसंगतियों से किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता केवल उसे ही दिखाई देती थी जिनसे वो इतना परेशां हो जाता था कि यदि उसे कागज पर न उकेरे तो शायद पागल हो जाये... ये और बात हैं कि इसके बावज़ूद भी घर हो या बाहर लोग उसे ‘पागल’ ही कहते थे उसका मजाक उड़ाते थे फिर एक दिन सबने देखा कि वो तो रहा नहीं पर, उसके जाने के बाद जिसने उसकी कलम उठाई वो भी उसके जैसा ही बन गया और ये सिलसिला ही चल निकला जिसने कलमकारों की एक जमात पैदा की जिसे कि ‘लेखक’ के रूप में पहचान मिली और लेखन उसका जीवन बन गया पर, इस लिखने के दौरान एक सच्चा ‘लेखक’ जिस पीड़ा से गुजरता हैं इसे केवल सृजनकर्ता ‘जननी’ ही समझ सकती हैं क्योंकि जब उसने ईश्वर से कहा कि वो भी ‘स्त्री’ की तरह माँ बनने के सुख को महसूस करना चाहता हैं तो भगवान ने ‘तथास्तु’ कहा था
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२५ जुलाई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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