गुरुवार, 23 जुलाई 2015

सुर - २०४ : "एक नरम तो दूजा गरम... पर, देशभक्ति दोनों का धरम...!!!"

‘मातृभूमि’
का कर्ज चुकाना

‘कर्मभूमि’
उसको बना लेना 

‘जन्मभूमि’
को कभी न भूलना

‘देशभक्ति’
का सच्चा धर्म निभाना 

कर देता अमर
सदा-सदा के लिये
यहीं हैं ‘इतिहास’ का कहना
---------------------------●●●
 

___//\\___ 

मित्रों...,

गुलाम भारत को स्वतंत्र कराने के लिये अनगिनत क्रांतिकारियों ने अपनी जान की बाजी लगा दी और उस महायुद्ध का मैदान बनी भारत की भूमि के कण-कण में वीरों का जो लहू टपका वो उनके  बलिदान की दास्ताँ स्वयं कहता हैं भले ही कुछ लोग इस लड़ाई के दौरान गुमनाम ही रह गये लेकिन ये ‘धरती’ माता तो अपने किसी भी लाल की कुर्बानी को नहीं भूली और न भूल सका हैं ये ‘देश’ जिसने पिता बन अपने साये के तले उसे आश्रय दिया, सदा आसमान की तरह उसका रक्षक बना रहा और उसकी शहादत पर जार-जार रोया भी तो फिर हम उसके हमवतन भाई-बहिन किस तरह से उनको विस्मृत कर सकते हैं जिन्होंने हम सबको न सिर्फ़ परतंत्रता की जंजीरों से छुड़ाया बल्कि हम सबको खुली हवा में सांस लेने के लिये ऐसा वातावरण दिया जहाँ देश ही नहीं उसकी बागड़ोर भी अपनों के हाथों में थाम दी और स्वदेश की जनता को उसका ही बनाया ‘लोकतंत्र’ का तोहफ़ा भी दिया जो भले ही उस तरह से आकार न ले सका जैसा कि उसका स्वपन देखा गया था फिर भी केवल आज़ादी के सौ साल के पहले ही जिस तरह से उसकी ‘पॉजिटिव’ तस्वीर नज़र आ रही हैं वो शायद, उसके ‘नेगेटिव’ से अधिक सुंदर नहीं हैं क्योंकि जिस तरह से सन ४७ से लेकर अब तक देश का माहौल बदला हैं और भ्रष्टाचार, अत्याचार, दुराचार, आतंकवाद, बेरोजगारी, भुखमरी, जनसंख्या विस्फोट के अलावा कई नई समस्यायें पैदा हुई हैं जो अभी तक हल हुई नहीं हैं और नई दूसरी सामने आती जा रही हैं जो उस भ्रम की पोल खोल देती हैं जिसके गलत प्रचार में हम जीते रहते हैं या जिसके झांसे में आकर आसानी से अपना कीमती ‘वोट’ किसी को भी दे देते हैं तब ऐसे में हमें इतिहास में पढ़ी ऐसे महानायकों की याद आती हैं जिन्होंने दूसरों के शासन में रहते हुये, बिना किसी तरह की आज़ादी या सुविधा न होने पर भी जिस तरह का भरपूर सार्थक जीवन जिया वैसा हम अपने लोगों के बीच समस्त तरह की सुख-सुविधा के होते हुये भी नहीं कर पा रहे जिसकी वजह भले ही कुछ भी हो लेकिन जिन लोगों ने हमें ये जिंदगानी देने के लिये अपने प्राणों की आहुति दे दी उनका पुण्य स्मरण करना तो हम सबका फर्ज़ बनता हैं या हम इतने कृतध्न हो चुके कि ये मानते हैं कि ये तो उनका फर्ज़ था तो उन्हें ये करना ही था या फिर आज के नौजवानों की तरह कंधा उचकाकर बोले कि, यदि हम उस दौरान पैदा होते तो हम भी करते इसमें हमारा क्या कुसूर जो हम अब पैदा हुये तो हम तो मस्ती से अपना जीवन जियेंगे

हर व्यक्ति की सोच उसके अपने व्यक्तिगत विचार हैं लेकिन किसी महापुरुष को नमन करने पर तो सबकी सहमति बन जाती हैं तभी तो जब भी किसी देशभक्त की पुण्य तिथि आती तो सबकी  जुबान पर उसकी अमर कहानी आ जाती कि किस तरह से विषम परिस्थितियों में उसने अपने लक्ष्य को प्राप्त किया और आज का दिन तो बड़ा विशेष हैं क्योंकि आज एक नहीं बल्कि दो महानायकों का जन्मदिवस हैं... जी हाँ २३ जुलाई का दिन बड़ा सौभाग्यशाली हैं कि उस दिन दो महान आत्माओं ने इस पावन धरा पर जनम लिया जिनका कर्ज तो हम किसी तरह से चुका नहीं सकते पर, उनको ह्रदय की अतल गहराईयों से आभार तो व्यक्त कर ही सकते हैं जिनके कारण हम अपने घर पर चैन से सोते हैं तो ‘प्रथम’ हम अपने श्रद्धा सुमन उस विराट व्यक्तित्व के चरणों में अर्पित करते हैं जिनका नाम था ‘लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक’ जो २३ जुलाई, सन् १८५६ ई. को ‘रत्नागिरि’ में एक सुसंस्कृत, मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में पैदा हुये और उच्च शिक्षा हासिल तो की ही साथ युवावस्था में ही ये तय कर लिया कि वे कभी सरकारी नौकरी नहीं करेंगे और नौजवानों की को बेहतरीन शिक्षा देने के लिये एक व्यक्तिगत कॉलेज और स्कूल खोलेंगे जबकि हम सब सुविधायें तो शानदार चाहते भले ही फिर वो विदेशी हो लेकिन कामना सरकारी नौकरी की करते और बदले में देशवासियों के लिये कुछ करना भी नहीं चाहते पर, उस दौर लोग ही नहीं उनकी सोच भी श्रेष्ठ थी जिसने उन्हें सर्वश्रेष्ठ बना दिया । उन्होंने उस विषम समय में अपने लक्ष्य को साधने 'न्यू इंग्लिश स्कूल’ नाम से विद्यालय तो खोला ही पर, सामजिक कार्यों में भागीदारी करते हुये ‘केसरी’ और ‘द मराठा’ जैसे दो ‘मराठी’ एवं ‘अंग्रेजी’ के साप्ताहिक अख़बारों का प्रकाशन भी किया तो ‘नरम दल’ के नेता के रूप में स्वतंत्रता की लड़ाई में भी जोर-शोर से हिस्सा लिया और अपने साथियों को जोश में लाने के लिये “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार हैं और मैं इसे लेकर रहूँगा” नारा दिया और उसे साकार भी किया ।

अब हम अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं २३ जुलाई १९०६ को ‘भावरा’ ग्राम में जन्म लेने वाले ‘चंद्रशेखर आज़ाद’ जैसे युवा क्रांतिकारी को जिन्होंने अपने नाम को सार्थक करते हुये न सिर्फ अपने वतन के आज़ाद होने का सपना देखा बल्कि उसके लिये प्रयास भी किये महज़ २५ साल का छोटा-सा जीवन था उनका और २७ फ़रवरी, १९३१ को इस संसार से अलविदा भी हो गये जिस उम्र में आज के युवा खुद को समझ भी नहीं पाते उतने से जीवन में वो इतना बड़ा काम कर गये कि आज भी उनका नाम हम भूले नहीं और हमारे नौजवानों को उनसे प्रेरणा लेना चाहिये ताकि वे भी समझे कि जीवन की सार्थकता लम्बे बड़े फ़िज़ूल जीवन में नहीं बल्कि छोटे-से सार्थकता से भरे जीवन में हैं तो आज इन दो महानायकों के जन्मदिवस पर दोनों को शत-शत नमन... :) :) :) !!!
______________________________________________________
२३ जुलाई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
--------------●------------●


कोई टिप्पणी नहीं: