शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

सुर-२१२ : "करती दूर जीवन की कालिमा... 'गुरु पूर्णिमा'...!!!

जगतगुरु
महर्षि वेदव्यास
आये बिखेरने ज्ञानालोक
जिससे हुआ प्रकाशित परलोक
आज उनकी जयंती आई
कर पूजा गुरुदेव की
सब मनाते गुरु पूर्णिमा
दूर करती जो अंतर की कालिमा
बन दिव्य ज्ञान की अरुणिमा ॥
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मित्रों...,

एक बालक के जनम के बाद से ही उसकी शिक्षा-दीक्षा की प्रथम जिम्मेदारी उसकी जन्मदात्री माँकी होती हैं, इसलियें उसे बच्चे की प्रथम शिक्षिकाकहा जाता हैं... उसके बाद जैसे-जैसे वो बड़ा होता हैं, उसके सर्वांगीण विकास के लिये उसे गुरुकुल में विद्याध्यान के लियें भेजा जाता हैं... गुरुपूर्णिमाके दिन बच्चे की विद्यारम्भ करने के लियें उसके नन्हे-नन्हे हाथों में कलम पकड़ाकर उसकी बुनियाद मजबूत करने जीवन की पाठशाला में ज्ञानार्जन का श्रीगणेश किया जाता हैं... जो आगे चलकर उसके स्वर्णिम भविष्य की आधारशिला बनाता हैं... कितने भी युग बदल जायें, कितनी भी नई तकनीक आ जायें और हम कितने भी आधुनिक हो जाये मगर उसके प्रशिक्षण के लियें उसे सही प्रकार से समझने और सीखने के लियें किसी न किसी गुरुकी आवश्यकता कभी भी खत्म ना होगी भले ही गुरु का स्वरूप बदल जाएँ मगर बिना उसके ज्ञान प्राप्त करना असंभव ही होगा... इसलियें हमारे पूर्वजों ने अपने गुरु के प्रति श्रद्धा निवेदन करने की परंपरा का प्रचलन शुरू किया जिससे कि हम अपने उस विद्यादानी के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापन करने के साथ-साथ नई पीढ़ी को भी धरोहर के रूप इसकी अनंत डोर सौंप जायें जिसे पकड़कर वो जीवन संग्राम की हर मुश्किल से निकलने का मार्ग अपनी बुद्धि से स्वयं ढूंढ सके ।

गुरु पूर्णिमाका दिन अपने गुरुके प्रति आदर के साथ-साथ अपनी भीतरी कोमल भावना को अभिव्यक्त करने का एक बहुत ही अनमोल अवसर प्रदान करता हैं... यूँ तो हमारा सारा जीवन ही उन सभी का ऋणी हैं जिन्होंने हमें कभी-न-कभी कुछ-न-कुछ सिखाया हैं, जिससे हम इस जगत और इसके सभी गूढ़ रहस्यों को भी समझने में समर्थ बन सके... वैसे तो माना जाता हैं कि सारी दुनिया ही एक पाठशाला हैं, जहाँ नित ही हमें कुछ नया और अद्भुत सिखने का मौका मिलता रहता हैं लेकिन हंसकी तरह नीरके बीच में से केवल क्षीरको ही ग्रहण करने का विवेक तो सिर्फ़ और सिर्फ़ एक शिक्षकसे ही प्राप्त होता हैं, इसलियें हमारा मस्तक सदैव ही अपने उस ज्ञानदाता के सम्मान में झुका रहता हैं... मगर यदि अपने मन के भावों को उज़ागर करने को एक विशेष पुण्यदायी दिवस ही मिलें तो इससे बढ़कर प्रसन्नता की बात और कुछ भी नहीं... और सौभाग्य से आज वो दिन आ गया जो समर्पित हैं हम सबके ज्ञानचक्षु खोलने वाली, हमने अन्धकार से प्रकाश में लाने वाली उस दिव्य ज्योति को जिसे हम गुरुकहते हैं... जो जीवन के हर मुश्किल हालात से लड़ने, अन्याय का मुकाबला करने, सत्य व असत्य को परखने, सही-गलत को पहचानने, जिंदगी को समझने, में हमारा सहायक और पथ-प्रदर्शक होता हैं... इसलिये तो हम सभी कहते हैं, तस्मे श्री गुरुवे नमः ।

जब-जब भगवान इस धरा पर मानव रूप में आयें तो उन्होंने भी गुरु की महत्ता को सार्थकता देने हेतु एक सच्चे जिज्ञासु विद्यार्थी के रूप में किसी-न-किसी गुरु का शिष्यत्व भी स्वीकार किया और स्वयं को एक साधारण मानव से आसाधारण व्यक्तित्व में परिवर्तित कर सारे विश्व के सम्मुख उदाहरण प्रस्तुत किया... रामके रूप में यदि उन्होंने ऋषि वशिष्ठ’, महर्षि विश्वामित्रऔर अन्य कई ऋषि-मुनियों को अपना गुरु मान उनके श्रीचरणों में पूर्ण श्रद्धा से अपना मस्तक रखा तो कृष्णके रूप में भी उन्होंने महर्षि सांदिपनीके यहाँ एक सामान्य शिष्य के रूप में ही प्रवेश लिया और पूरी लगन से हर एक विधा को सिखा... जिससे वो सभी चौसठ कलाओं में दक्ष होकर एक धर्मरक्षक, परोपकारी, कुशल रणनीतिकार, राजनीतिज्ञ और उतने ही संवेदनशील इंसान भी बन सकें... ऐसे ही एक गुरुजन भारत भूमि के जन को अपने बुद्धि कौशल और प्रखर ज्ञान से दिशा दिखाने वाले जगतगुरु महर्षि वेदव्यासकी जयंती गुरु पूर्णिमाकी आप सभी को ढेर सारी बधाईयाँ... दिल की अतल गहराइयों से... :) :) :) !!!
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३१ जुलाई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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