रविवार, 19 जुलाई 2015

सुर-२०० : "मंगल पांडे का जीवन सार... करो देश से प्यार...!!!"

गर,
न होते
‘मंगल पांडे’
विद्रोह का स्वर
क्रांति की चिंगारी
सुलगाता कौन ?
नमन...
उस क्रांतिवीर को
जिसने अपने देश के
‘प्रथम स्वाधीनता संग्राम’
अंग्रेजों के विरोध का
जोरदार आहवान किया
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मित्रों...,

हिंदी सिनेमा के महानायक ‘अमिताभ बच्चन’ का एक प्रसिद्द संवाद हैं जिसे अक्सर सभी दोहराते हैं कि... “हम जहाँ खड़े होते हैं, लाइन वहीँ से शुरू होती हैं”... इसे यदि हम अपने भारतीय इतिहास के स्वतंत्रता संग्राम के वीर नायकों से जोड़े तो इसे यूँ लिखा जायेगा कि... “मंगल पांडे का नाम जहाँ आता हैं वहीँ से क्रांतिकारियों की लाइन शुरू होती हैं”... वाकई कहने या पढ़ने में ये पंक्ति कुछ अजीब-सी लगे लेकिन हकीकत जुदा नहीं हैं क्योंकि जब फिरंगियों ने इस मातृभूमि को जिसे ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था को अपने लालच के वशीभूत होकर अपने शिकंजे में जकड़कर यहाँ के देशवासियों को अपना गुलाम बना लिया तो हम भारतवासी जो अब तक आज़ादी की खुली हवाओं में सांस लेने के आदि और अपनी मर्जी के मालिक थे एकाएक ही घुटन के उस माहौल में परेशान होने लगे लेकिन अभी तक उनके भीतर दमन के उस कुचक्र के प्रति विरोध करना नहीं आया था या वे ये समझ ही नहीं पा रहे थे कि किस तरह से इन विदेशी व्यापारियों को अपने घर से निकले जो आये तो थे मेहमान बनकर लेकिन जब इनको लगा कि इन भोले-भाले लोगों पर बड़ी आसानी से शासन किया जा सकता हैं तो फिर मालिक बन बैठे और हमारी जमीन, हमारे ही वतन बोले तो अपने ही घर में हमें कैद कर के रख दिया और हम भी पिंजरे में बंद मूक बेबस पक्षी की तरह अंदर ही अंदर इससे निज़ात पाने के लिये छटपटाने लगे

ऐसे में ‘मंगल पांडे’ हमारी आवाज़ बने और जिन ब्रिटिश अधिकारीयों के हाथ के नीचे वो एक कठपुतली मात्र थे याने कि ‘बैरकपुर छावनी’ में एक अदना से सिपाही थे केवल इस बात का पता लगने पर कि उनको जो कारतूस दिये गये थे उनमें सूअर/गाय की चर्बी मिलाई गयी हैं तो एक सच्चे देशभक्त क्रांतिवीर की रगों में दौड़ने वाला खून लावा बनकर खौल उठा और वो लब जो कि खामोश रहना सीख गये थे अब अपने उन्ही ऑफिसर्स के सामने बुलंद आवाज़ में उनका विरोध करने उठ खड़े हुये इस प्रसंग ने बता दिया कि शेर पिंजरे में बंद होने पर भी शेर ही होता हैं जो कुछ समय के लिये भले ही चुपचाप रह जाये लेकिन जब दहाड़ता हैं तो फिर सारे जानवर उसके अस्तित्व की उपस्थिति से घबरा जाते हैं इसलिये हमें हर हालात में खुद के अंदर के हूनर को जंग नहीं लगने देना चाहिये और जब वक्त पड़े तो सामने वाले को ये अहसास दिला देना चाहिये कि वो हमारे जिस्म को भले ही अपनी कैद में कर लेकिन रूह तो सदा आज़ाद थी और हर हाल में आज़ाद रहेगी जिसे देह का पिंजर न रोक के रख सकता उसे बांध पाने की कूवत भला ख़ुदा के किस बंदे में हो सकती हैं             

आज ही के दिन १९ जुलाई, १८२७ को इस योद्धा ने उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले के नगवा गाँव में पिता ‘दिवाकर पांडे’ तथा माता श्रीमती ‘अभय रानी’ के घर आँख खोली और जन्म से ब्राह्मण होने के कारण उन्होंने ऐसी कहानियां और चरित्रों का पाठन किया जिसने उनको सदैव साहस के साथ सत्य के पथ पर चलने प्रेरित किया शायद यही वजह थी कि उनका आत्मबल बेहद मज़बूत था जो गोली खाकर भी डिगा नहीं जिसका परिचय उस वक़्त मिलता हैं जब २९ मार्च, १८५७ को कारतूस का विरोध करने पर उनको घेर लिया जाता हैं तो वे जीवित दुश्मनों के हाथ आने से बचने के लिये स्वयं पर ही गोली दाग लेते हैं पर, उसके बावज़ूद भी घायल अवस्था में अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार किये जाने पर वे उनके अनेक अत्याचारों से विचलते हुये बिना ही अदालत में अंग्रेज अफसर पर वार करने का अपना अपराध भी कुबूल करते हैं और सज़ा सुनाये जाने पर ८ अप्रैल १८५७ को ख़ुशी-ख़ुशी फांसी के फंदे पर झूल जाते हैं लेकिन अपने हमवतन भाई-बहिनों को ये संदेश दे जाते हैं कि अपने पर होने वाले अन्याय के खिलाफ़ हमें खुद ही आवाज़ उठानी होगी जब तक हम अपने शासकों के अत्याचार और जबरन लादे गये कानून या नियमों का प्रतिकार स्वयं नहीं करेंगे हमें उसे उसी तरह झेलने विवश होना पड़ेगा... ये तो लगभग डेढ़ सौ साल पहले की बात हैं जब इस देश पर विदेशियों का राज़ था तब एक देशभक्त ने ‘बोल के लब आज़ाद हैं तेरे’ जुमले को सार्थकता दी लेकिन अब तो अपनी ही जमीन पर अपनों के बीच ही रह रहे हैं हम पर, तस्वीर कितनी बदली हैं ये भी सोचना होगा... गलत को गलत कहना होगा... बेईमानी, अन्याय, भ्रष्टाचार का मिलकर विरोध करना होगा... तभी बदलाव आयेगा... जो सम्मान से जीना सिखायेगा... :) :) :) !!!        
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१९ जुलाई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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