सोमवार, 6 जुलाई 2015

सुर-१८७ : "नन्हा बचपन... खोता बचपन...!!!"

नन्हे-मुन्ने
रोते बिसूरते
जा रहे पढ़ने
दुनिया से लड़ने
पर...
भूल रहे
भोली बातें
मासूम हरकतें
नटखट शरारतें
क्योंकि...
सबको
जल्दी-जल्दी
बहुत बड़ा होना हैं 
कुछ बनकर दिखाना हैं
और...
हम व्यस्त
पैसा कमाने में
उसके लिये देखे
सपने को पूरा करने में
जबकि...
अनमोल बचपन
सस्ते में ही खर्च हो रहा
अफ़सोस कि...
हमको ये दिखाई नहीं दे रहा
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मित्रों...,

ढाई साल की ‘आर्या’ को नहीं पता कि ये ‘प्ले स्कूल’ क्या होता हैं और उसे वहां रोज-रोज क्यों जाना पड़ता हैं पहले दिन तो उसे वहां बड़ा मज़ा आया जब उसने वहां पर तरह-तरह के खेल-खिलौने और साथ खेलने बहुत सारे अपने हमउम्र साथियों को देखा लेकिन एक दिन जब उसके साथ खेलने वाले ‘रौनक’ ने उसके बाल खींचे और उसे सीढ़ियों से धक्का दे दिया उस दिन से उसे उस जगह से चिढ़ हो गयी पर, घर पर कोई उसकी मनोस्थिति को समझ नहीं पाया अतः  न चाहते हुये भी उसे रोज-रोज वहां जाना पड़ता हैं

चार साल के ‘शौर्य’ को एक्टिंग और पेंटिंग का बड़ा शौक था तो स्कूल में इस तरह की गतिविधि ने उसे बड़ा लुभाया लेकिन पढ़ाई के नाम पर उसे बुखार आ जाता और सबके समझाने पर भी उसे ये समझ में नहीं आता कि इन किताबों को पढने से किस तरह से उसकी जिंदगी बदल जायेगी या वो अपने पापा की तरह बन जायेगा क्योंकि उसे तो वो सब अक्षर सपने में भी डराते थे

आठ साल की ‘रिया’ को ‘प्ले स्कूल’ में तो बड़ा मजा आया जहाँ सब कुछ खेल-खेल में सिखाया जाता था और बड़ी मस्ती होती थी लेकिन जब से उसे पढ़ने-लिखने का थोड़ा-बहुत अर्थ समझ आया हैं तो बड़ी घबराहट होने लगी हैं क्योंकि उस पर हमेशा स्कूल में अव्वल आने का मम्मी-पापा का दबाब बना रहता जिसके कारण वो अक्सर परीक्षा के समय बीमार पड़ जाती या एग्जाम में लिखने बैठती तो याद किया सब कुछ भूल जाती हैं  

‘आर्या’... ‘शौर्य’... ‘रिया’... भले ही कल्पना के चंद नाम हो लेकिन अपने आस-पास नजर दौड़ाये तो ऐसे अनेक प्यारे-प्यारे बच्चे नज़र आयेंगे जिनका अबोध बालपन अभी इस पहाड़ समान जिम्मेदारी को उठा पाने में समर्थ नहीं क्योंकि भले ही वो ‘बाल हनुमान’ या ‘बाल गणेशा’ की मूवी देखता हो लेकिन वो जानता हैं कि उसके पास कोई चमत्कारी शक्ति नहीं जिससे उसे पल भर में कुछ भी मिल जाये या वो ‘शक्तिमान’ की तरह कारनामें दिखा सके याने कि उनकी ये समझ तो विकसित हो गयी हैं पर, मासूमियत अब भी बरक़रार हैं जो केवल धूम-धड़ाका या मस्ती-धमाल करना चाहती हैं

एक समय था जब नन्हे-मुन्ने बच्चों का पांच साल तक पाठशाला में दाखिला नहीं कराया जाता अतः माता-पिता उनकी उमर बढ़ाकर लिखावाते थे तब शिक्षक गण हाथों से उनका नाप-जोख करते ताकि उनकी वास्तविक वय का अंदाज़ा लगा सके और अब ऐसा वक़्त आ गया हैं कि व्यवसायी बन चुके कड़ी प्रतिस्पर्धा के मारे अध्यापक स्वयं किसी बच्चे के पैदा होने के पहले से ही उसके प्रवेश के लिये कतार लगा कर खड़े रहते हैं और जिस तरह का महंगाई वाला वातावरण हैं जिसमें कि सयुंक्त परिवार ‘स्माल फैमिली’ में तो बंटे ही साथ-साथ उससे निपटने कमाई के लिये घर के जब सभी सदस्य चारदीवारी से बाहर निकले तब  नवजातों को पालना-पोसना भी एक जिम्मेदारी कम सरदर्द तो बना ही साथ-साथ आधुनिकता के बढ़ते कदमों ने उनको भी इतना ‘स्मार्ट’ बना दिया कि अब वो उम्र भी घटकर आधी रह गयी और ‘प्ले स्कूल’ या ‘किंडर गार्डन’ के नाम पर इस तरह की संस्थायें बनने लगी कि वो छोटे-छोटे सुकुमार बालक-बालिकायें जिन्हें खुद की ‘नोजी’ साफ़ करना तक नहीं आता वे अब कंधे पर बैग लटकाये ‘बालवाडी’ जाते हैं और उतने समय माता-पिता चैन की साँस लेकर बेफ़िक्र हो अपने काम में मगन हो जाते बगैर ये सोचे समझे कि इससे भले ही उनका ‘जूनियर’ अपने टेलेंट को निखार कर या जल्दी-जल्दी से चंद ‘पोयम’ या ‘स्टोरी’ रटकर आपके दोस्तों या रिश्तेदारों के सामने अपनी नाक ऊंची कर दे लेकिन कहीं न कहीं तो उसकी मासूमियत, उसके भोलेपन से खिलवाड़ किया जा रहा हैं और उसे इतनी नाज़ुक अवस्था में उस विशाल दुनिया के मैदान में जिंदगी की लड़ाई लड़ने उतार दिया दिया गया हैं जहाँ के दांव-पेंच सिखाने के लिये आज भी दुनिया के किसी भी कोने में कोई भी पाठशाला नहीं हैं और जिसके लिये समझदारी का पाठ घर से ही पढ़ाया जाता हैं लेकिन किसी के भी पास समय नहीं गौर करने लायक बात हैं कि जब जन्मदाताओं के पास ही अपने अनमोल रत्नों को देने के लिये ‘समय’ नामक मुफ्त में उपलब्ध वस्तु नहीं तो फिर वो किस तरह दूसरे से ये अपेक्षा कर सकते हैं मगर, फिर भी उसे खरीदते हैं चंद रुपयों की ख़ातिर भले ही कोई ये काम करने तैयार हो जाता हो लेकिन जो व्यावहारिक ज्ञान उसे आपके संसर्ग से मिल सकता हैं वो किसी भी ओर जगह संभव नहीं...हाँ, कविता या कहानी सिखाने की बात हैं तो वो तो उसे उस स्थान पर ही बेहतर तरीके से हासिल होगा लेकिन उसके बदले जो उससे छीना जा रहा हैं और जो हम सबको समझ नहीं आ रहा वो न तो कहीं मिलता हैं न ही जल्द अहसास होता हैं

अब भी गर, हम न समझे तो वही होगा जो हो रहा हैं कि जब बचपन गुजर जायेगा हम समझदारों की भीड़ में उसे तलाशेंगे... या फिर पछतायेंगे... बेहतर न हो कि अभी ही उसे संभाल ले... मासूमियत को खोने न दे... समझदारी बनने न दे... जब तक कि उसका सही वक़्त न आ जाये... उसे उसी तरह खिलौने से खेलने दे... हाथ में कलम तभी थमाये जब उसके हाथ न कंपकपाये... और वो न इसे समझ जाये :) :) :) !!!  
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०६ जुलाई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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