शुक्रवार, 10 जुलाई 2015

सुर-१९१ : "बचपन हर गम से अंजाना होता हैं... !!!"

आसमां से
टपकती हुई
बूंदों का मतलब
किसी बच्चे से पूछो
तो जानोगे कि
ये सिर्फ़...
उदास होने
छूप-छूप रोने
या किसी की याद में
डूब जाने का वक़्त नहीं
बल्कि...
ये तो खेलने
मस्ती करने और
जी भर नहाने का मौसम हैं
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मित्रों...,

‘दीपाली’ सुबह से हो रही बारिश से बेहद परेशां थी क्योंकि उसकी वजह से हमेशा साफ-सुथरा रहने वाला उसके घर का फ़र्श हर किसी के आने से गंदा जो हो रहा था क्योंकि ‘डोरमेट’ वो तो गीला होकर कोने में सरका दिया गया था और इसके अलावा उसकी परेशानी की एक बड़ी वजह ये थी कि पूरे घर में जहाँ-तहाँ सीले कपड़े डले हुये थे पर, उसके दोनों बच्चे तीन साल की ‘सुहाना’ और छे साल का ‘आर्यन’ इन बातों से बेखबर समझ नहीं पा रहे थे कि उनकी मम्मा हर बात पर क्यों चिडचिडा रही हैं और उन दोनों को बाहर झमाझम होने वाली बारिश में खेलने क्यों नहीं जाने दे रही जबकि उनकी तबियत भी ठीक हैं और उनके स्कूल की भी छुट्टी हैं तो फिर भी वे भींगने से क्यों मना कर रही हैं उनके लगातार ज़िद करने से माँ ने झल्लाकर कहा... तुम लोग चाहे कुछ भी कहो मैं तुम लोगों की बातों में नहीं आने वाली इसलिये जिद न करो अभी तो तुम दोनों को बड़ा मज़ा आयेगा पर, फिर जब जुकाम या बुखार होगा तो बैठकर रोओगे और मुझे ही तो सब देखना पड़ेगा... न... न... मैं नहीं देने वाली परमिशन जाओ अपने कमरे में बैठकर खेलो दोनों उनकी बात सुनकर नन्ही ‘सुहाना’ झट से अपनी मीठी आवाज़ में बोली मम्मा, जुकाम होने दो न... अपने डॉक्टर अंकल हैं न... वो तो एक ही दवा में हमको ठीक कर देंगे... उसकी बात सुनकर माँ को हंसी क्या आई... दोनों को जैसे छुट मिल गयी झट बाहर भाग गये    

बच्चों की बातें यूँ तो बचपन की भोली-भाली हंसी में उड़ा देने वाली नादानी भरी होती हैं लेकिन उनके जीने का अंदाज़ बहुत कुछ सीख देता हैं जिस तरह से वो हर एक पल का आनंद लेते हैं और हर चीज़ से खुश हो जाते हैं या फिर किसी बात के लिये अपने बड़ों को बड़ी आसानी से मना लेते हैं ये अदा तो कोई बस, उनसे ही सीख सकता हैं हम तो मौसम के बदलने से ही परेशां हो जाते हैं और सर्दी हो या गर्मी या बरसात... रोना शुरू कर देते उफ़... ये गर्मी... ये सर्दी... ये बारिश... लेकिन कभी किसी बच्चे को इस तरह कहते सुना हैं मैंने तो नहीं सुना कि उसे इस तरह से फिज़ा में होने वाले परिवर्तनों से कोई फ़र्क पड़ता हैं वो तो हर हाल में उसी तरह हंसते-खेलते रहते हैं ये तो हम ही हैं जो उनको जबरन गर्म या सूती कपड़े पहनाते या उनका ख्याल रखते हैं पर, वो तो मस्तमौला की तरह बेफिक्र हर गम से दूर अपनी ही स्वपनिल दुनिया में मगन रहते हैं अपनी छोटी-छोटी नज़र से बहुत बड़ी-बड़ी कल्पना कर लेते हैं और जब उनसे बात करो तो अहसास होता हैं कि वे क्यों तनाव या सरदर्द या अवसाद जैसी भयंकर बीमारियों से दूर रहते हैं क्योंकि वे किसी भी बात या वस्तु को केवल उस समय तक ही तरज़ीह देते हैं जब तक वो उसके सामने हैं पर, थोड़ी ही देर में सब कुछ भूल वापस अपनी रौ में बहने लगते हैं तभी तो उनको डांट दो या बुरी तरह से मार दो वे तो रो-धोकर फिर उसी व्यक्ति के पास चले जाते हैं जिसने उसे चोट पहुंचाई क्योंकि वो हमारी तरह उसके प्रति कोई धारणा नहीं बनाते हैं

वे बड़ी आसानी से किसी से भी ‘सॉरी’ या ‘प्लीज’ या ‘थैंक्यू’ भी कह देते हैं क्योंकि उनके लिये इसके मायने उतने ही हैं जितने उनके ‘टीचर्स’ ने उनको बताये हैं कि जब कोई गलती हो तो ‘सॉरी’ बोल दो... कोई आपका कोई काम करें तो उसे ‘थैंक्यू’ बोल दो और किसी से कुछ लेना हैं तो ‘प्लीज’ बोल दो.. तो वो उसमें अपना अलग से कोई दिमाग नहीं लगते उसे उसी तरह से स्वीकार कर उसका पालन करने लगते हैं जबकि हम उसमें अपना अहं ले आते हैं जबकि ये सब बातें हमने भी अपने बचपन में सीखी थी और याद भी हैं लेकिन उसे कहना इतना आसां नहीं रहा जितना उस समय था क्यों... सोचकर देखें जवाब मिल जायेगा... क्योंकि हम हर बात के साथ बेहद सोच-विचार करते उसे तर्क-कुतर्क आवश्यक-अनावश्यक के तराजू में तौलते और फिर अपने मतलब की हिसाब से उसे बोलते जबकि वे बिना तोल-मोल के बेहिचक बिंदास खर्च करते आख़िर... शब्द ही तो हैं कोई खज़ाना थोड़े न.. पर, हमने तो साधारण शब्दों को भी कीमती बनाकर रख दिया हैं

ये नन्हे-मुन्ने शिक्षक हर घर में होते ही हैं इन्हें हल्के में न ले और जब लगे कि भले ही कहने वाला भले ही कमउम्र हैं लेकिन बात बड़ी अनमोल हैं तो उसे बच्चा या बच्चों की बात समझकर उड़ा न देना बल्कि उसमें जो सबक हैं उसे गाँठ बांध लेना... हाँ... ये और बात हैं कि आजकल तो महिलाओं ने गाँठ बंधने की अपनी सदियों पुरानी आदत भी छोड़ दी हैं पर, दिमाग तो अपना काम करता ही हैं तो उसमें ही दर्ज कर लेना ताकि कहीं काम पड़े तो उसे इस्तेमाल कर सके... गौर करेंगे तो ऐसी कई ज्ञान की बातें उनके साथ रहकर पता चलेगी जो हमने बड़े होकर बिसरा दी हैं... माना कि दुबारा बच्चे नहीं बन सकते मगर, बच्चों को बच्चा बने रहने तो दे सकते हैं जिससे कि हम भी अपने बचपन को दोहरा ले... ये ठीक हैं बालपन जाकर आता नहीं लेकिन खुदा की देखो ख़ुदाई कि वो हमारे ही बच्चों में उसे लौटा देता हमें फिर से उसे जीने का अवसर देता... इसलिये उनमें अपनी ही छवि देख लो... फिर से बच्चे हो लो... जी लो एक फिर बचपन जी लो... खिलखिलाकर हंस लो... बारिश में भींग लो... कागज़ की नाव बहा लो... :) :) :) !!!     
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१० जुलाई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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