‘गुरुदत्त’
या ‘संजीव कुमार’
कहने को दो भिन्न कलाकार
पर, हूनर में देखो तो
लगते एक ही सिक्के के दो पहलू
छोटे-से जीवन में जो दे गये
इस फ़िल्मी दुनिया को
अभिनय के अनगिनत पहलू ॥
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मित्रों...,
जाने वो कैसे लोग थे
जिनके प्यार को प्यार मिला
हमने तो जब कलियाँ मांगी
काँटों का हार मिला.... :( !!!
दो अलग-अलग जिंदगियों का एक
ही फलसफ़ा अजीब इत्तेफ़ाक हैं कि ९ जुलाई १९२५ को ‘बैंगलोर’ में ‘वसंथ कुमार शिवशंकर
पादुकोण’ का जनम हुआ जिन्हें कि हम निर्माता-निर्देशक-अभिनेता एक शब्द में बोले तो
बहुप्रतिभाशाली ‘गुरुदत्त’ के नाम से बेहतर तरीके से जानते हैं और उसके बारह वर्ष
बाद उसी दिन ९ जुलाई १९३८ को मुंबई में ‘हरिभाई जरीवाल’ पैदा हुये जिन्हें कि हम ‘संजीव
कुमार’ के नाम से उम्दा तरह पहचानते हैं याने कि इन दोनों अभिनेताओं की पैदाइश की
तारीख का एक होना ही सिर्फ संयोग नहीं हैं बल्कि यदि गहराई से इनके जीवन का आकलन
करें तो इन दोनों में बहुत सारी अन्य समानतायें भी दृष्टिगोचर होती हैं पहली तो
यही कि दोनों के वास्तविक नाम उनके प्रचलित नामों से भिन्न थे और दोनों ही का जन्म
एक सामान्य परिवार और परिवेश में हुआ था लेकिन दोनों के ही अंदर बाल्यकाल से ही
सिने जगत और अभिनय के प्रति गहरा लगाव था तभी तो एक गैर फ़िल्मी माहौल में पैदा
होने के बावज़ूद भी उन्होंने स्वपन नगरी जाकर अपने सपनों को साकार करने का मन बना
लिया था और दोनों ही अपनी धून के पक्के थे तो फिर किस तरह न वो अपनी सोची हुई बात
को पूरा करते । इसके अलावा उन दोनों का इस धरती पर आगमन भी तो शायद इसी
क़ाज के लिये हुआ था तभी तो छोटे से जीवन को दोनों ने इस तरह से जिया कि वो एक आने
वाले सभी कलाकारों के लिये प्रेरणा का सबब बन गया क्योंकि उन दोनों ने जो भी किया
पूर्ण समर्पण एवं लगन के साथ दिल से किया तभी तो हर एक दिल ने उन दोनों को दिल से
ही कुबूल किया और उनका यूँ जल्द इस दुनिया से सबको छोड़कर चले जाना भी कोई विस्मृत
नहीं कर सका शायद, इसलिये कि जाते तो सभी हैं लेकिन जब ऐसे संवेदनशील जीवन से
भरपूर लोग असमय ही बिना कुछ कहे चले जाते हैं तो उनकी वो जुदाई हमेशा सबको सालती
हैं ये तो फिल्म उद्योग की तकनीक का कमाल हैं कि सिनेमा के कलाकार जाने के बाद भी
अपने किरदारों की शक्ल में सदा जिंदा रहते हैं और जब-जब भी हम उनके चलचित्र देखते
हैं तो हमें वो अपने आस-पास ही महसूस होते हैं लेकिन कुछ लोग तो सिर्फ़ जेहन में ही
अपनी स्मृति का भंडार छोड़कर अलविदा कर जाते हैं पर, जिसने भी असाधारण काम किया
दुनिया ने झुककर उसे <3 से सलाम किया फिर चाहे फिर वो किसी भी काम या किसी भी
मुल्क से ताल्लुक रखता हो ।
दोनों के नाम के अलावा
दोनों के कार्यक्षेत्र ही नहीं बल्कि उनके अहसास की गहराई में भी समानता थी जिसकी
वजह उनका संवेदनशील होना भी हैं क्योंकि वे हर एक पल को. हर एक शख्स को, हर एक
घटना को बाहरी स्थूल दृष्टि से नहीं बल्कि मन की सूक्ष्म आँखों से भी देखते थे और यही
वो नज़रिया होता जो किसी इंसान को उसकी आत्मा से जोड़ता उसे दूसरों से अधिक भावुक
बनाता क्योंकि व्यावहारिकता हमें इतना स्वार्थी बना देती कि हम स्वयं के सिवा न तो
किसी को देख ही पाते और न ही किसी के बारे में सोच ही पाते हैं क्योंकि जिससे हमें
फ़ायदा नहीं या जो हमसे कोई ताल्लुक नहीं रखता या जिससे हमें लाभ न मिले उस शय या
शख्स से हमें कोई सरोकार नहीं होता लेकिन एक जज्बाती इंसान जो वास्तव में इंसानियत
से लबरेज होता हैं उसकी नजरों में अपना-पराया, नफ़ा-नुक्सान या स्वार्थ नहीं केवल
मानवीयता का भाव होता तभी तो वो आगे बढ़कर अनजानों को भी गले लगा लेता और ये आंतरिक
भावना दोनों में ही कूट-कूट कर भरा था और इसने ही उनके अभिनय को नकलीपन की बजाय
असलियत का जामा पहनाया और देखने वालों को भी उनका निभाया कोई चरित्र किसी कल्पना
का चेहरा नहीं बल्कि अपने चारों तरफ रहने वाला कोई अपना ही लगा जिसे वो इतने सालों
के बाद भी अपने अंदर से नहीं निकाल सके । ‘गुरुदत्त‘ के विलक्षण
प्रतिभा का अंदाज़ा तो इसी बात से हो जाता हैं कि शुरुआत से ही उनको अभिनय की जगह
निर्देशन में अधिक रुझान था लेकिन फिर भी जितनी भी फिल्मों में उन्होंने अभिनेता
के रूप में काम किया उसे देख कभी लगा नहीं कि ये उन्होंने महज़ मजबूरी में या ऐसे
ही कर लिया और उनकी बहुमुखी प्रतिभाओं का एक चेहरा जिससे अक्सर अधिकांश दर्शक
नावाकिफ़ हैं वो ये हैं कि वे एक कुशल नर्तक भी थे और कहते हैं कि उन्होंने अपने
कैरियर का आरंभ न तो अभिनेता और न ही निर्देशक बल्कि ‘प्रभात फ़िल्म्स’ में एक ‘कोरियोग्राफर’
की हैसियत से किया था जिससे उनके अंदर छूपे अलहदा हूनर का पता चलता हैं और जैसा कि
हम सभी जानते हैं कि नृत्य विधा में अभिनय का रंग तो होता ही हैं तो यहीं से उनके
अंदर एक अभिनेता भी पनपने लगा जिससे वे स्वयं ही अनजान थे पर, वो तो भीतर था तो
बाहर तो निकलना ही था इसलिये न चाहते हुये भी उनको इस चोले को भी ओढ़ना पड़ा पर, जब
हम ‘आर-पार’, ‘मि.एंड मिसेस 55’, ‘प्यासा’, ‘काग़ज़ के फूल’, ‘चौदहवी का चाँद’ या
‘साहिब बीवी और ग़ुलाम’ जैसी अमर कृतियों को देखते हैं तो कहीं से भी नहीं लगता कि
ये जो एक्टर पर्दे पर दिखाई दे रहा हैं वो इस काम को मजबूरी में कर रहा हैं यहाँ
तक कि ‘प्यासा’ में तो वे अभिनय सम्राट ‘दिलीप कुमार’ को लेना चाहते थे पर, उनके
द्वारा फिल्म न करने पर खुद उस रोल को अभिनीत किया जो इतिहास बन गया और फिर जब
उन्होंने ‘निर्देशक’ के रूप में कैमरा संभाला तो विश्व स्तर पर अपना नाम कर गये और
अपनी बनाई फिल्मों से सिने जगत को न सिर्फ़ बेमिसाल सृजन की सौगात दी बल्कि देव
आनंद, वहीदा रहमान जैसे अनमोल कलाकार भी दिये जिस पर फिल्म इंडस्ट्री को फख्र हैं ।
‘संजीव कुमार’ ने तो अपने अभिनय के ऐसे विविध रंग रजत पर्दे पर बिखेरें कि
देखने वाले उसके रंग में ही रंग गये और फिर वो नायक, सह-नायक, खलनायक, हास्य
कलाकार और चरित्र भूमिकाओं को भी इस तरह से अभिनीत कर गये कि उनकी उम्र और उससे भी
बढ़कर उनकी कला को देखकर लोग दांतों तले ऊँगली दबाने लगे जब ‘नया दिन नयी रात’
फिल्म में दर्शकों ने उनको एक साथ नौ अलग-अलग किरदार निभाते देखा तो भौचक रह गये
जो उनकी अद्भुत प्रतिभा का परिचायक हैं और वे तो शायद जन्मे ही इस काम के लिये थे इसलिये
जब भी जिस रूप को धरा कभी भी वो नकली नहीं लगा और फिर उनकी अभिनीत फिल्मों ने उन्हें
इस दुनिया में ऐसा स्थापित किया कि अब तक लोग उनकी बेमिसाल फ़िल्में अनोखी रात, सत्यकाम,
देवता, अनामिका, कोशिश, परिचय, अंगूर, मौसम, शोले, खिलौना, आशीर्वाद, त्रिशूल, पारस, शतरंज के खिलाड़ी, सीता और
गीता, आंधी, विधाता, नया दिन नयी रात, संघर्ष, मुक्ति, त्रिशूल, नमकीन, पति पत्नी और वो, जानी दुश्मन, गृहप्रवेश, हम पांच, चेहरे पे चेहरा, दासी आदि देखकर अभिनय का पाठ पढ़ते हैं । इतने अधिक
सफ़ल और प्रसिद्द कलाकार होने के बावज़ूद भी इन दोनों के जीवन में एक और संयोग बना जब
१० अक्तूबर, १९६४ में गुरुदत्त ने अत्यधिक नींद की गोली खाकर आत्महत्या कर
ली तो उस वक़्त वो ‘के आसिफ़’ के निर्देशन में बनने वाली फिल्म ‘लव एंड गॉड’ करने वाले
थे लेकिन अचानक होने वाले इस हादसे की वजह से जब इस फिल्म में उनके द्वारा निभाये जा
रहे रोल के लिए किसी और अभिनेता की तलाश की गयी तो वो जाकर ‘संजीव कुमार’ पर खत्म हुई
जिसने इस तरह इतने सालों बाद उन दोनों को इस तरह एक दूसरे से जोड़ दिया और संयोग का
अंतिम सूत्र तब टुटा जब इसी फिल्म की शूटिंग के दौरान ६ नवंबर १९८५ को अचानक ही दिल
का गंभीर दौरा पड़ने के कारण इस दुनिया-ए-फानी को छोड़कर चले गये और इस तरह लगभग अल्पायु
में ही दोनों एकाएक ही इस संसार से चले गये लेकिन अपने पीछे छोड़ गये अनगिनत बहुमूल्य
फिल्मों का खज़ाना जो कभी न खत्म होगा तो आज फ़िल्मी दुनिया के उन दोनों महान नगीनों
को <3 से नमन... जिनसे महका रहा फ़िल्मी दुनिया का ये खुबसूरत चमन... :) :) :) !!!
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०९ जुलाई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह “इन्दुश्री’
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