गुरुवार, 16 जुलाई 2015

सुर-१९७ : "लघुकथा - ऑनर किलिंग...!!!"

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मित्रों...,


आज वो भले ही मंत्री बनकर राजनीति का एक जाना माना नाम हैं लेकिन एक समय था कि अपने गृहनगर में उनके दादाजी की अपनी ही आन-बान-शान थी जब अंग्रेजों के जमाने में वो उस रियासत के मालिक और एक राजा की हैसियत रखते थे और लोग उनके नाम से भी कांपते थे फिर जब राज-रजवाड़े खत्म हो गये तो उनके पिता ने भी राजनेता के रूप में उस प्रतिष्ठा को बरक़रार रखा इस तरह पीढ़ी दर पीढ़ी उनके खानदान ने अपनी साख को कायम रखते हुये ही नये जमाने के साथ कदम से कदम मिलाये लेकिन इसका ये कतई मतलब नहीं कि वो  अपनी परंपरा को भूला दे उन्होंने बचपन से अपने घर पर जिस तरह का अनुशासित माहौल पाया उसने उनके अंदर एक संजीदगी के अलावा अपनी इज्जत और गरिमा के प्रति बेहद संवेदनशील बना दिया था अतः वे भी अपने बच्चों की इसी तरह परवरिश करना चाहते थे कि उन पर सबको गर्व हो

इसलिये जब उनको पता चला कि उनकी इकलौती सुपुत्री ‘मृणालिनी’ जो अभी मात्र १० बरस की ही थी ने अपने स्कूल में उनकी इज़ाज़त के बगैर किसी ‘डांस कम्पटीशन’ में भाग लिया हैं तो उनका क्रोध अपनी सभी सीमा पार कर गया उन्होंने उसे बुलाकर कहा, “आपको भले ही ये याद न हो कि आप किस खानदान से ताल्लुक रखती हैं लेकिन ये नगर अभी भी उस शानो-शौकत को भूला नहीं हैं... क्या सोच रहे होंगे वो लोग कि ‘महाराजा शमशेर बहादुर राजपुत’ की परपोती अपनी मर्यादा भूलकर यूँ सबके सामने नाच रही हैं... आज आपने हमें बहुत शर्मिंदा किया... हमें आपसे कतई ये उम्मीद नहीं थी”

‘मिनी’ बेचारी जो पहले भी उनके सामने जाने या मुंह खोलने से भी डरती थी अब कुछ और मुरझाकर अपने माँ के आंचल में छिप गयी तो उन्होंने उसे बड़े प्यार से समझाया... ‘लाड़ो... तुझे कितनी बार कहा कि ये नाच-गाना या इस तरह की कोई भी कला इस घर की चोखट लांघकर न तो भीतर आ सकती हैं और न ही हम इसे पार कर उस तक जा सकते हैं... तुझे पता तेरी बुआ बड़ा मीठा गाती थी और एक बार तेरे दादाजी के कानों में उसकी आवाज़ क्या पड़ी उसके बाद वो गाना ही भूल गयी और ये तेरी माँ भी शादी के पहले सिलाई-कढ़ाई में अव्वल थी पर, ब्याह के बाद सब छोड़ दिया क्योंकि इस परिवार की कोई भी औरत ऐसा कुछ करने का सोच भी नहीं सकती... इसलिये मेरी बेटी अब तू भी अपने अंदर के कलाकार को मार दे और हमारी तरह जीना सीख ले’
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१६ जुलाई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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