शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

सुर-१८४ : "फ़िल्मी दुनिया के राजकुमार... आज भी सदाबहार...!!!"

जब भी
रुपहले पर्दे पर
वो आता
हर कोई उसे
अपलक देखता
और सुनता रह जाता
फिर जोर-जोर से
खूब तालियाँ बजाता
उसकी अदाकरी
उसके बोले डायलॉग को
हर दर्शक दोहराता
‘राजकुमार’ का होना ही  
हर फिल्म को हिट बनाता
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मित्रों...,

हिंदी सिने उद्योग को यदि हम एक रियासत या साम्राज्य माने तो फिर उसी स्वपन लोक में काम करने वाले और देखने वालों को अपनी रोबीली आवाज़ के साथ-साथ अपने आलिशान अंदाज़ सम्राटों से हाव-भाव से मंत्रमुग्ध कर देने वाले अभिनेता ‘राजकुमार’ को उस जगत का एकमात्र शहज़ादा माना जायेगा जो ज्यादातर श्वेत लिबास और वैसे ही सफ़ेद जूतों के साथ जब-जब भी सिनेमा के सिल्वर स्क्रीन पर प्रकट होता तो दर्शकों पर जैसे कोई जादू हो जाता और वो उसके शाहाना अंदाज़ से इस कदर प्रभावित होता कि सुध-बुध भूल कर उसके सम्मोहक व्यक्तित्व को न सिर्फ देखता रह जाता बल्कि उसके उतने ही जोशीले कंठ स्वर से निकले एक-एक संवाद को सुनकर खुद भी जोश में आ जाता और उत्साह से जोरदार तालियों की गूंज से पूरे सिनेमा हॉल को गूंजा देता यहाँ तक कि वो तो उस कहानी के खत्म हो जाने के बाद भी उसके असर से बाहर नहीं निकल पाता बल्कि वो तो उस किरदार को अपने साथ अपने घर तक लेकर आ जाता और अकेले में या किसी महफ़िल में उसके उस पुरज़ोर स्वर में बोले गये डायलॉग की हूबहू नकल कर खुद को उसके जैसा महसूस कर अपने आप पर ही इतराता क्योंकि ‘राजकुमार’ ने अपने अनोखे अंदाज़ से इस फ़िल्मी दुनिया को कुछ अलग दिया जिसकी वजह से एक विशेष दर्शक वर्ग उनका दीवाना था और उनकी आने वाली फिल्मों का बेसब्री से इंतजार करता था उनके साथ तो बहुत सारे किस्से जुड़े हुये हैं जिनकी सच्चाई का तो सबको पता नहीं लेकिन वे उसे सबको बताते हैं जो उनके कद और उनके रहस्मय लेकिन प्रभावशाली व्यक्तित्व के प्रति उनके प्रशंसकों को और अधिक आकर्षित करता तभी तो यदा-कदा अब तक भी उन कथाओं के माध्यम से उनको याद किया जाता और उनका वो आकर्षण बरक़रार रखने में इन रोचक अफ़वाह सरीखे किस्सों का भी बड़ा हाथ हैं जिसने उनको असल जिंदगी में दंभी और आत्ममुग्ध के रूप में प्रचारित किया पर, उस नकारात्मक छवि ने भी उनके दर्शको की संख्या में इजाफ़ा ही किया हैं क्योंकि उनको ‘राजकुमार’ के ‘जॉनी’ बोलने की अदा भाती थी फिर भले ही लोग कहे कि उनके कुत्ते का नाम ‘जॉनी’ था जिसके कारण वो सबको उसी तरह संबोधित करते थे पर, जो भी हो वे जब तलक जिये हर मिलने वाले को ‘जॉनी’ कहकर बुलाया और आज भी बहुत से कलाकार तो उनके अभिनय की नकल या उनके बोलने की शैली की मिमिक्री कर अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं जो बताता कि जब भी किसी ‘अभिनेता’ या ‘अभिनेत्री’ ने फ़िल्मी दुनिया में अपने एक ख़ास अंदाज़ से आगमन किया हैं तो उसने अपने लिये एक अलग मुकाम बनाया हैं और भले ही कितने भी नये लोग आ जाये या उसको कॉपी ही क्यों न कर ले लेकिन उसके उस स्थान को फिर कोई भी भर नहीं पाया हैं

८ अक्टूबर १९२६ को अविभजित भारत के ‘बलूचिस्तान’ प्रांत जो अब ‘पाकिस्तान’ में हैं इस अभिनेता जिसका असल नाम ‘कुलभूषण पंडित’ था पर, जिसे हमने ‘राजकुमार’ के नाम से जाना का जन्म हुआ और अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वे पुलिस की नौकरी में लग गये थे लेकिन किस्मत में तो अभिनेता बनना लिखा था तो फिर किस तरह वो केवल उसी पद पर कार्यरत रह पाते तो फिर जो तकदीर में लिखा था उसके लिये अवसर भी उसी किस्मत के लेखे ने जुटा दिया चूँकि वे ‘मुंबई’ के एक ऐसे थाने में पदस्थ थे जहाँ पर अक्सर ही फिल्म उद्योग में काम करने वाले निर्माता-निर्देशकों का किसी न किसी वजह से आना-जाना लगा रहता था तो इसी तरह एक बार वहां फिल्म निर्माता ‘बलदेव दुबे’ किसी आवश्यक कार्य से वहां आये और इंस्पेक्टर ‘कुलभूषण पंडित’ उर्फ़ ‘राजकुमार’ के बात करने के अंदाज से काफी बेहद प्रभावित हुये तो इस तरह उनका इस सिने जगत में आने का संयोग अपने आप बन ही गया और फिल्म का प्रस्ताव उनके पास ख़ुद चलकर आ गया और फिर क्या था उन्होंने तुरंत नौकरी से इस्तीफ़ा देकर अभिनय जगत को अपनाने का फैसला ले लिया और फिर उनके अभिनय की यात्रा का आगाज़ हुआ जिसमें शुरूआती कुछ फिल्मों की असफलता के बाद १९५७ में मिली ‘महबूब खान’ की अविस्मरणीय महान कृति ‘मदर इंडिया’ जिसने इतिहास बना दिया और उनकी छोटी-सी भूमिका ने भी अपनी गहरी छाप छोड़ी जिसकी वजह से उनको अंतररास्ट्रीय स्तर पर भी पहचान मिली और इस तरह सिलसिला शुरू हुआ सफ़लता का जब वर्ष 1959 मे आई "पैगाम"  जिसमें उनको अभिनय सम्राट ‘दिलीप कुमार’ के सामने काम करने का सुअवसर मिला और ‘राज कुमार’ अपने सशक्त अभिनय से दर्शकों के बीच अपनी जगह बनाने में काम्याब हो सके और उसके बाद ‘दिल अपना और प्रीत पराई’, ‘घराना’, ‘गोदान’, ‘दिल एक मंदिर’ और ‘दूज का चांद’ जैसी फिल्मों में मिली कामयाबी के कारण वह दर्शकों के बीच अपने अभिनय की धाक जमाते हुए ऎसी स्थिति में पहुंच गए जहां वह अपनी भूमिकाएं स्वयं चुन सकते थे अतः अब आने फिल्मों ने उनकी एक नवीनतम छवि गढ़ने में मदद की क्योंकि उसके बाद आई ‘काजल’ और ‘वक़्त’ ऐसी फ़िल्में थी जिसने उनके अभिनय के विविध आयामों की झलक दिखाई शायद, ‘वक़्त’ वो पहली फिल्म थी जिसने इस ‘फिल्म इंडस्ट्री’ को एक नये ‘ट्रेंड’ के अलावा एक नया राजकुमार भी दिया क्योंकि अब भी लोग उस फिल्म में उनके ‘एंट्री सीन’ और धांसू डायलॉग भूले नहीं इसलिये तो अब भी कभी-कभी "चिनाय सेठ, जिनके घर शीशे के बने होते है वो दूसरों पे पत्थर नहीं फेंका करते” या फिर “चिनाय सेठ ये छुरी बच्चों के खेलने की चीज़ नहीं हाथ कट जाये तो ख़ून निकल आता है" जैसे लोकप्रिय संवाद को सब उस तरह से बोलने की कोशिश करते हैं और उसके बाद आई ‘पाकीज़ा’ में उनका बोला गया वाक्य "आपके पांव देखे बहुत हसीन हैं इन्हें जमीन पर मत उतारिएगा मैले हो जायेगें" भी उतना ही ‘पॉपुलर’ हुआ फिर तो उनके लिये ख़ास तौर से संवाद लिखे जाने लगे

वर्ष १९७८ मे आई एक फिल्म ‘कर्मयोगी’ जिसमें उन्होंने दोहरी भूमिका अदा कर लोगों को अपने दो अलग-अलग अंदाज़ एक साथ पेश किये तो १९८० में एक अन्य फिल्म ‘बुलंदी’ में ऐसी शानदार अदाकारी के झंडे गाड़े कि उस दौर के दर्शकों को भी मोह लिया और इस तरह उनकी सभी फ़िल्में चाहे वो ‘हमराज’, ‘नीलकमल’, ‘मेरे हुजूर’, ‘हीर रांझा’ जैसी प्रेम कहानियां हो या 'कुदरत’, 'धर्मकांटा’, 'शरारा', 'राजतिलक', 'एक नयी पहेली', 'मरते दम तक', 'जंगबाज', 'पुलिस पब्लिक' जैसी दमदारपर उन्होंने रूमानी या चरित्र सभी भूमिकायें अपने अंदाज़ में की जिसके ज़रिये वे एक लम्बे अरसे तक दर्शको के दिल पर राज करते रहे यहाँ तक कि नब्बे के दशक में भी उन्होंने कम काम करने के बाद भी ‘तिरंगा’, ‘पुलिस और मुजिरम’, ‘इंसानियत के देवता’, ‘बेताज बादशाह’, ‘गाड और गन’ जैसी कुछ फ़िल्में की और इस साल १९९१ में  आई ‘सौदागर’ जिसमें एक बार फिर ‘दिलीप कुमार’ के साथ उनकी फ़िल्मी टक्कर देखने लायक थी और उसके सारे के सारे डायलॉग चाहे वो "दुनिया जानती है कि राजेश्वर सिंह जब दोस्ती निभाता है तो अफ़साने बन जाते हैं मगर दुश्मनी करता है तो इतिहास लिखे जाते है" या “काश, कि तुमने हमे आवाज दी होती तो हम मौत की नींद से भी उठकर चले आते” या फिर “हम तुम्हें मारेंगे और जरूर मारेंगे लेकिन वह वक्त भी हमारा होगा, बंदूक भी हमारी होगी और गोली भी हमारी होगी” अब भी उनकी याद दिलाते हैं ।

अपने अंतिम दिनों में उन्होंने एकांतवास कर लिया था और फ़िल्मी दुनिया से उनका नाता लगभग टूट ही गया था पर, कहते हैं कि जब उन्हें अपनी अंतिम घड़ी का अहसास हुआ तो उन्होंने अपने पुत्र ‘पुरू राजकुमार’ को अकेले में बुलाकर कहा कि “देखो मौत और जिंदगी इंसान का निजी मामला होता है अतः मेरी मौत के बारे में मेरे मित्र ‘चेतन आनंद’ के अलावा और किसी को नहीं बताना और मेरा अंतिम संस्कार करने के बाद ही फिल्म उद्योग को सूचित करना” इस तरह वो जब तक जीते रहे एक ‘राज़ा’ की तरह अपनी शर्तों और अपनी शान से जिये और एक लम्बे अरसे तक दर्शकों को अपने अभिनय से दीवाना बनाने वाले और अपने जाने के बाद भी अपनी याद को उनके दिलों में छोड़ने वाले इस महान अभिनेता ने आज ही के दिन ३ जुलाई १९९६ को इस संसार को सदा-सदा के लिये अलविदा कह दिया... पर अपने प्रसंशकों के दिलों में वो अब तलक भी उसी तरह जीवित हैं... :) :) :) !!!
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०३ जुलाई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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