मंगलवार, 7 जुलाई 2015

सुर-१८८ : "बचपन भले ही चला जाये... पर, बचपना न जाने पाये...!!!"

मुझे तो
वो सिक्का चाहिये
ये ‘सौ’ का नोट नहीं
इसे आप ही रख लो ‘पापा’ 
बोलते थे बचपन में
पर,
जब जाना
उसका मूल्य तो
भागने लगे उसके पीछे
और... सिक्कों के साथ ही
न जाने कहाँ खो गयी
वो चिल्लर जैसी ‘खुशियाँ’
जो अब किसी भी ‘नोट’ से
खरीदी ही नहीं जाती
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मित्रों...,

जैसे ही अपनी माँ के साथ टहल रहे तीन वर्षीय ‘आयुष’ को सडक के किनारे रेत का ढेर दिखाई दिया वो मचल पड़ा मम्मी... प्लीज़ रेत पर थोड़ी देर खेलने दो न... उसकी माँ ने उसे बहलाने और उस तरफ़ से उसका ध्यान हटाने के लिये कहा, आयु बेटा आप मम्मा का मोबाइल मांग रहे थे न गेम खेलने के लिये लो थोड़ी देर खेल लो... पर, उसके लिये तो उस वक़्त रेत अधिक अनमोल थी जिसके लिये वो किसी भी कीमती से कीमती वस्तु का त्याग कर सकता था... वाकई, ये केवल बचपन में ही संभव हैं कि एक गुब्बारे या एक चॉकलेट या या एक बर्फ़ के गोले या फिर सिर्फ़ एक रूपये के सिक्के की ख़ातिर उससे भी अधिक मूल्यवान सामान का मोह बड़ी ही आसानी से छोड़ दिया जाता हैं जबकि उसके बदले में बड़ा ही लुभावना ऑफर भी पेश कर दिया गया हो फिर पता ही नहीं चलता कब धीरे-धीरे वो निर्दोष मासूमियत चुपचाप चली जाती और वो धूल-मिटटी जिसे ख़ुशी-ख़ुशी चाटा करते थे या जमीन पर गिरी ‘आइसक्रीम’ भी उठाकर खा लिया करते थे एकाएक ही उसमें गंदगी नजर आने लगती और बचपन की वो भोली-भाली बातें बचकानी या बचपना लगने लगती क्योंकि पढ़-लिखकर जो ‘मैनर्स’ हमें सिखाये जाये या जिस तरह के दिशा-निर्देश हमें दिये जाते उसके कारण हमारे जेहन में ‘समझदारी’ नाम की जो नई ‘बला’ पलने लगती वो हर पल, हर जगह हमें ऐसी किसी नटखट शरारत या कोई भी बच्चों जैसी हरकत करने से रोकती रहती और इस तरह बड़ी सोची समझी साज़िश के तहत हमसे हमारी मासूमियत ही नहीं वो बेसाख्ता आने वाली हंसी और वो बेफ़िकी  की नींद जो किसी भी जगह आ जाती छीन ली जाती या बोले कि हम ही अपने से बड़ों को देखकर बड़े होने के जाल में स्वयं ही फंस जाते और फिर पछताते कि य़ार, छोटे थे तो कितने अच्छे थे और जब छोटे होते तो सबकी डांट या हर एक बात पर मशवरे सुनते-सुनते सोचते कि बस, जल्दी से बड़े हो जाये याने कि हम कभी ये जान नहीं पाते कि क्या सही हैं बस, जैसा माहौल होता वैसा ही सोचने लगते हैं

ये कहने का ये मतलब कतई नहीं कि हम छोटे ही बने रहे या बालपन को ही जीते रहें केवल ये बताना हैं कि हम चाहे कितने भी बड़े हो जाये मगर, यदि उस अहसास को उन बाल सुलभ भावनाओं को अपने दिल के किसी कोने में उसी तरह पलने दे तो फिर हर एक छोटी या बड़ी बातों या चीजों में उसी तरह से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे जैसा छुटपन में करते थे और फिर उसी तरह का अनुभव भी पायेंगे लेकिन जिस तरह बचपन के दूध के दांत टूट जाते और फिर नहीं आते उसी तरह हम बड़े होते हैं तो उन बाल लीलाओं को फिर नहीं दोहराते और वो भी किसी स्वप्न की तरह गायब हो जाती... हमें पता ही नहीं चलता कि कब हम छोटी-छोटी सी बातों में खुश होना छोड़ देते कहाँ तो बचपन में थाली में ‘चाँद’ देखकर भी मान लेते थे कि वो जमीन पर उतर आया और ताली बजाकर नाचने लगते थे हैं और अब बड़े होकर ‘चाँद’ जैसी अनेक असंभव वस्तुओं की लालसा में अपने पास मौज़ूद छोटी-बड़ी शय को बिसराकर अपनी भूख-प्यास और हंसी को भी भूल जाते जबकि बचपन में तो किसी से नाराज़ भी हो तो दूजे पल ही उस बात को भूल हंसने लगते और कोई सस्ती सी चीज़ भी उपहार कहकर दे दे तो ख़ुद को बड़ा ख़ुशकिस्मत समझते और अब महंगी से महंगी सौगात से भी नहीं बहलाते यदि वो मनभावन न हो तो... बस, यही वो हल्की-फ़ुल्की बोले तो शीशे सी नाज़ुक ‘टिप्स’ हैं जिनको अपनाकर हम हर उमर में जिंदगी को भरपूर जी सकते... हर एक लम्हें को यादगार बना सकते... और बिना शिकायत मुस्कुरा सकते... कोशिश तो कर के देखें... देर नहीं हुई... यदि बात अच्छी लगी और समझ में भी आई... :) :) :) !!!                       
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०७ जुलाई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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