शनिवार, 4 जुलाई 2015

सुर-१८५ : "महासमाधि की घड़ी आई... स्वामी विवेकानंद की याद साथ लाई...!!!"

महज़
चार दशक  
जीवन के पाये
पर,
चार युग समान
जिया भरपूर
दुनिया के समंदर से
ज्ञान के मोती
ढूंढ-ढूंढकर समेट लिये
अपने दामन में
फिर बाँट दिये सारे
खोलकर अपने दोनों हाथ
संपूर्ण जगत के समक्ष
बनाया अपने देश को ‘विश्वगुरु’
और अल्प काल में ही
दिखाया सबको कि
‘आयु’ वो नहीं
‘जीवन’ भी वो नहीं
जिसकी गणना
बरसों में की जाती
बल्कि...
चंद पल की
छोटी-सी जिंदगी भी
अगर हो सर्वहितकारी तो
सदियों के लिये अमर कर जाती
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मित्रों...,

चिरयुवा ‘स्वामी विवेकानंद’ देश का गौरव और सभी युवाओं के पथ-प्रदर्शक ही नहीं बल्कि एक ऐसी अमर आत्मा हैं जिसने अपने महान उद्देश्य को पूर्ण करने कुछ पलों के लिये देह का आवरण ओढ़ा था और जब उसने अपना वो लक्ष्य संधान कर लिया तो उस चोले को ज्यों का त्यों उतारकर वापस अंतरिक्ष के सघन वायुमंडल में अपने सूक्ष्म स्वरूप को विलीन कर लिया वैसे, भी अध्यात्मिक दृष्टिकोण से यदि देखा जाये तो हर एक जीवन का कोई न कोई उदेश्य जरुर होता भले ही उसे जानने में कुछ लोगों के एक क्या अनेक जनम गुजर जाते लेकिन उन्हें अहसास नहीं होता जबकि कुछ लोग एक ही जीवन में इतना कुछ कर जाते कि युगों-युगों तक दुनिया उनका गुणगान करती उन्हें स्मरण कर आँखें नम करती लेकिन जाने वाले कभी नहीं आते केवल उनकी स्मृति ही हमारे पास शेष रह जाती हैं जिनके माध्यम से हम उनको अपने करीब महसूस करते क्योंकि वो सिर्फ़ अपने लिये नहीं बल्कि संसार और उसमें रहने वाली प्राणी मात्र के लिये अपना सर्वस्व अर्पण कर देते और दुनिया को इतना कुछ देकर जाते कि उनके जाने के बाद भी लोग उनको भूल नहीं पाते और जब-जब भी उनको याद करने का कोई भी अवसर आता तो अपनी श्रद्धा के सुमन उनके चरणों में चढ़ा उनकी जीवन गाथा को दोहरा कृतज्ञता के अश्रु मोतियों से उनके प्रति अपने मनोंभावों का प्रदर्शन करते जिनकी वजह से उन्होंने इस कठिन जीवन को सरलता से जीने का मंत्र पाया


बात जब ‘नरेंद्रनाथ’ की हो तो फिर किसी को भी उनके जीवन दर्शन या उनकी जीवनी बताने की आवश्यकता नहीं क्योंकि हम सब उनके उस त्यागमयी सन्यासी समान निःस्वार्थ सर्वहितकारी जीवन और सूर्य के समान उनके तेजोमय व्यक्तित्व की ज्ञान देने वाली प्रखर रश्मियों से ही तो प्रज्वलित हो रहे हैं तो फिर क्यों न उनके ‘महासमाधि दिवस’ पर उनका पुण्य स्मरण कर अपने आपको उस ज्ञान वर्षा से सराबोर कर सौभाग्यशाली समझने के उस क्षण से वंचित हो जिसने हमें उस मिटटी में पैदा किया जहाँ अवतार लेने देवता भी तरसा करते हैं और जिस भूमि पर अनगिनत साधू-सन्यासी, ऋषि-मुनियों ने हजारों वर्ष कठोर तपस्या कर ईश्वर से न सिर्फ़ वरदान प्राप्त किये बल्कि अपने तपोफ़ल से इस धरती और यहाँ के लोगों को लाभान्वित किया जिससे कि इस देश की धरती को सोना उगलने का वर प्राप्त हुआ और स्वर्ग में बहने वाली ‘गंगा नदी’ भी ख़ुशी-ख़ुशी यहाँ आकर सबको अपने पावन जल से पवित्र बना उनके पापों को धोने लगी और ‘स्वामी विवेकानंद’ समान योगियों ने यहाँ आकर अपने कर्म योग से सबको कर्मयोगी बनने का प्रेरक संदेश दिया जिसे अपनाकर कोई भी एक पल में ही पत्थर से हीरा बन अपने ही नहीं दूसरों के अंधकारमय जीवन में भी ज्ञान की ज्योति जला सकता हैं

आज ही के दिन लगभग सौ साल से थोड़ा ज्यादा पहले ४ जुलाई १९०३ को स्वामी जी ने अपने सभी काज पूरे कर और सारे विश्व को धर्म-कर्म की जलती मशाल सौंपकर ‘योग’ द्वारा अपनी सांसों को साधकर इस नश्वर संसार से विदा ली और उनके जाने के बाद भी ये मशाल अनवरत जल रही हैं हर पथभ्रष्ट को राह दिखा रही हैं ये और बात हैं कि जो आँख होने के बावजूद तेज प्रकाश में भी देख पाने में अक्षम हो वो इस दिव्य ज्योत को किस तरह देख सकते हैं पर, जिनके पास वो सूक्ष्म दृष्टि हैं जिससे कि अदृश्य को भी देखा जा सके वो अँधेरे में भी सब कुछ देख लेते... इसी भेद के कारण कोई केवल ‘नर’ ही बना रह जाता जबकि कोई ‘नारायण’ बन जाता तो ऐसे ही विराट स्वरुप आदमकद ‘स्वामी विवेकानंद’ को कोटि-कोटि प्रणाम... जिन्होंने चंद सालों में बड़ा जीवन जीकर हम सबको बूंद से सागर बन उस महासागर में मिलने का अचूक मंत्र दिया... :) :) :) !!!
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०४ जुलाई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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