सोमवार, 20 जुलाई 2015

सुर-२०१ : "भूल गयी देश-विदेश... 'मैडलिन स्लेड' बन गयी 'मीरा बेन'...!!!"

भेद नहीं
आदम जात में
बतलाती इंसानियत
जिसमें किसी का
कोई मज़हब नहीं होता
न ही कोई ऊंच-नीच
न ही रंग-रूप का फ़र्क
बस, रूह से रूह का नाता
जोड़ता हर एक को
बांधता एकता के सूत्र में
फिर कौन देखता
कि कोई रहता कहाँ हैं
मन से मन को राह होती
जो खिंच लाती देह को
आसमां के परे जाकर भी
तभी तो...
न जाने कितने परदेसी
आकर इस भूमि में
फिर यहीं के होकर रह गये
प्रेम के अटूट बंधन में बंध गये
अपनी निःस्वार्थ सेवा गाथा
सबके दिलों पे लिखकर चले गये
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मित्रों...,

'मैडलिन स्‍लेड' एक फिरंगी महिला जिसे यदि इक परोपकारी आत्मा कहे तो अधिक उचित होगा २२ नवम्बर १८९२ में सात समंदर पार ‘इंग्लैंण्ड’ में 'ऐडमिरल सर ऐडमंड स्लेड'  के घर इस देश से बहुत दूर जन्मी वो भी ऐसे समय जबकि एक मुल्क से दूसरे मुल्क जाना इतना आसान नहीं था लेकिन खबरें तब भी हवा की रवानी की तरह कहीं भी बेरोकटोक तेज गति से पहुँच जाती थी और इंसानियत ने हर एक बंदे को अपने स्तर पर एक सूत्र में जोड़कर रखा था तभी तो वही ब्रिटिश जिन्होंने हमें अपना गुलाम बनाकर रखा था उन्हीं के वतन के कुछ लोग हमारी जंग में हमारे साथी बने हमारा दुःख-दर्द उनकी आँखों से बहा, हमारे जख्मों की तकलीफ़ को उन्होंने भी सहा और हमारी असहनीय पीड़ा देखकर उसके मुंह से भी चीख निकली क्योंकि वे सिर्फ़ इंसान थे और उनका सिवा इंसानियत के कोई भी ‘धर्म’ नहीं था तभी तो उन्होंने हमें गैर नहीं बल्कि अपना समझकर ही गले लगाया और कभी हमारे अश्कों को अपने हाथों से पोंछा तो कभी हमारे जख्मों को सहलाया उस पर मरहम लगाया तो कभी हमारी वेदना को अपने सीने में महसूस कर आह भी भरी ऐसी ही थी 'मैडलिन स्‍लेड' जिन्होंने ‘महात्मा गांधी’ के जीवन चरित्र पर लिखी गयी ‘रोम्या रोलां’ की किताब  पढ़ी तो ‘गांधीजी’ के विराट व्यक्तित्व के बारे में जाना और इस तरह वो भारत भूमि के ‘मोहनदास करमचन्द गाँधी’ के बारे में पढ़-सुनकर उनके व्यक्तित्व और सिद्धांतों से इस कदर प्रभावित हुई कि उनके साथ मिलकर देश-समाज का हित करने के उद्देश्य से अपनी जन्मभूमि एवं मातृभूमि को बड़ी आसानी से छोड़कर हिंदुस्तान चली आई और यहाँ के रंग-ढंग में इस तरह से घुल-मिल गयी कि फिर उनको पहचान पाना भी संभव नहीं रह गया हमेशा खादी की सफ़ेद साड़ी में लिपटी किसी जागृत देवी की तरह तेजोमय उनकी छवि नज़र आती जिसके सर पर आंचल उसे और भी अधिक गरिमामय बना देता हैं और उनकी त्याग-समर्पण की कहानी पढ़कर सर स्वतः ही श्रद्धा से उनके सामने झुक जाता हैं कि किस तरह मानवीयता की अदृश्य डोर हर दूरी, हर मजहब, हर भेदभाव से परे समस्त ब्रम्हांड के बाशिंदों को समभाव से जोड़ती हैं तभी तो जब भी इस पृथ्वी के किसी भी हिस्से पर कोई मुसीबत आती तो सारी नफ़रत, सारे मतभेद भुलाकर सब मदद के लिये एक साथ खड़े हो जाते हैं    

कहते हैं कि ६ नवंबर, १९२५ को वे ‘मुंबई’ आई और फिर जब ‘साबरमती आश्रम’ जाकर ‘बापू’ से उनकी भेंट हुई तो उन्हें अहसास हुआ कि जीवन की सार्थकता दूसरों के लिए जीने में ही है क्योंकि इस आश्रम में उन्होंने ‘गाँधी’ और उनके समर्थकों को सीधा-सरल त्यागमय पर दूसरों के लिये जीवन जीते देखा तो फिर अपना घर, अपना देश सब कुछ छोड़कर वो यही की होकर रह गयी और उनके साथ काम करने लगी उन्हें इस देश के परतंत्र लोगों को देखकर बड़ी दया आती थी अतः उन्होंने भी स्वतंत्रता संग्राम की हमारी लड़ाई में पूरे तन-मन-धन से जोश के साथ हिस्सा लिया यहाँ तक कि आश्रम में रहकर चरखा कातना, खादी एवं स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार-प्रसार करना जैसे काम करना भी शुरू कर दिये और इस तरह वे जीवन पर्यन्त बापू की न केवल निष्ठावान सहयोगी बनी रहीं बल्कि उनके रूप में ‘गाँधीजी’ को एक बेटी, एक बहन मिल गयी जो बराबरी से उनका सहयोग कर रही थी ‘बापू’ ने जब ‘मेडलिन स्लेड’ का मानव जाति के प्रति इस तरह निश्छल प्रेम भाव और पीड़ित मानवता के प्रति सेवा का परोपकारी लगाव देखा तो उनको एक नया नाम ‘मीरा’ दे दिया  और फिर सभी लोग उन्हें स्नेह से ‘मीरा बेन’ कहने लगे और सुनते में तो ऐसा भी आता हैं कि भारत देश के प्रति ‘मीरा बेन’ का प्रेम इतना अधिक था कि वह ‘भारत’ को ही अपना ‘देश’ मानने लगी थी और ‘इंग्लैड’ उन्हें विदेश की तरह लगने लगा था आधुनिक इतिहास के प्रोफेसर ‘रिजवान कैसर’ ने लिखा हैं--- महात्मा गांधी के राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में किये गये सुधारात्मक और रचनात्मक कार्यों में ‘मीरा’ की अहम भूमिका थी, वह गंदी और पिछड़े बस्तियों में जाकर निसंकोच खुद सफाई कार्य करती थी

इस तरह अनपढ़ निरक्षर लोगों की पढ़ाई, जाति के आधार पर किये जाने वाले छुआछुत, स्वदेशी सामान के उपयोग के लिये लोगों को प्रेरित करने के अलावा ‘गांधीजी’ के अन्य आंदोलन में भी ‘मीरा’ निसंकोच हाथ से हाथ मिलाकर सहयोग करती रही और जब एक दिन ‘बापू’ इस देश-दुनिया को छोड़कर चले गये तब भी ‘मीरा’ उनके द्वारा स्थापित किये गये सिद्धांतों और उनके महान विचारों का अनवरत प्रचार करती रही जिसके कारण १९८२ में उन्हें ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया गया तथा 'इंडियन कोस्ट गार्ड' ने अपने एक गश्ती पोत का नाम भी उनके नाम पर रखा है जो भारतियों के उनके प्रति सम्मान को दर्शाता हैं ।शेगांव’ यानी ‘सेवाग्राम’ में ‘बापू कुटी’ का निर्माण ‘मीराबेन’ ने ही किया तथा ‘महात्मा गांधी’ का आसन, दफ्तर, भोजन कक्ष आदि कहां होना चाहिए इसी तरह की दिनचर्या के कामकाज की बातों को ध्यान में रखकर ‘बापू की कुटी’ को वर्ष १९३६ में साकार रूप दिया जो देश की धरोहर है तथा देश-विदेश के सैकड़ों दर्शनार्थी यहां आते हैं जहाँ वे बापू के जीवन-दर्शन को समझते हैं क्योंकि इस ‘सेवाग्राम’ में स्थित ‘बापू की कुटी’ में महात्मा गांधी १९३६ से १९४६ तक रहे थे ।

अंत समय में वे ‘वियेना’ चली गयी थी और आज ही के दिन २० जुलाई १९८२ को उन्होंने अंतिम सांस ली तो आज उनकी पुण्यतिथि पर हम सब भारतवासी उनके उस परम त्याग, समर्पण और आज़ादी की लड़ाई में हमारा साथी बनने पर शत शत नमन और अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं... वो एक ऐसी महान आत्मा थी जो सिर्फ़ इंसानियत को ही अपना एकमात्र धर्म और परोपकार को ही सार्थक कर्म समझती थी... उनकी जीवनी हम सबको ये संदेश देती हैं कि जब मन में सेवा का भाव हो तो फिर कोई भी दूरी या मज़हब मायने नहीं रखता... तब निर्मल अंतर्मन सबको अपना समझता... :) :) :) !!! 
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२० जुलाई २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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