रविवार, 15 नवंबर 2015

सुर-३१८ : "बढ़ रही तकनीक... घट रही मासूमियत...!!!"

बदल रही
नवीन तकनीक ने
बना दिया
यांत्रिक नादान बचपन
तरह-तरह के
आधुनिक उपकरण संग
खेल-खेल कर
घातक विकिरणों के बीच
पनप रहा भोलाभाला बचपन ॥
----------------------------------●●● 

___//\\___

मित्रों...,

पुकारता रहता खेल का मैदान लेकिन नहीं आते खेलने हंसते-खिलखिलाते बच्चे कि सबके हाथों में हैं स्मार्ट गेजेट्ससब हैं व्यस्त खेलने में वीडियो गेमनहीं भागना चाहते तितलियों के पीछे, नहीं रेस लगाना चाहते हवा संग, नहीं झुलना चाहते पेड़ की डालियों से और न ही तोड़कर खाना चाहते ललचाते फल, न ही गंदे करना चाहते मिटटी से अपने आपको तभी तो अब नहीं दिखते प्रकृति के मध्य फूलों की तरह धीरे-धीरे खिलते नाज़ुक नन्हे-मुन्ने तरह-तरह के खेल खेलते लड़ते-झगड़ते फुर्तीले बच्चे जिन्हें कुदरत खुद अपने हाथों से सहलाती, चूमती, प्यार करती और देकर अनेक तरह की सौगातें उनका विकास करती उनकी रगों में जीवन में आने वाली कठिनाइयों संग जूझने की हिम्मत भरती, हर तरह की छोटी-मोटी बीमारियों संग फाइट करने प्रतिरोधक क्षमता बढाती जिससे कि वो बदलते मौसम के साथ खुद को ढलने अनुकूलित बन सके जो अब कृत्रिम वातावरण में रहकर कठिन होता जा रहा क्योंकि बचपन तो विषैली किरण छोड़ते तरह-तरह के अत्याधुनिक उपकरणों से घिरा एक मशीनबोले तो नन्हे-नन्हे रोबोटमें तब्दील होता जा रहा अभी भले ही जिसे सुनना हमें कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण या अटपटा लगे लेकिन हकीकत यही हैं कि पहले एकल परिवार ने जहाँ बच्चों से बुजुर्गों की वरदानी छाँव छिनी वहीँ अब इन तकनीकी यंत्रों ने उनसे उनका भोलाभाला बचपन ही छीन लिया और उनकी तोतली बातों में भी तो वो मासूमियत नहीं रही कि हर तरह के ज्ञान से लबरेज ये छुटकू-छुटकी इतना कुछ जानते हैं कि किसी के बताने से पहले या उनसे कुछ छुपाने की कोशिश करने से पहले ही बोल पड़ते हैं और हम आँख फाड़ मुंह खोले बस, उनको तकते ही रह जाते हैं ।

इससे पहले कि सब कुछ किताबों में ही दर्ज रह जाये या बीते ज़माने की बातें बन जाये हमें फिर से उनका प्रकृति से परिचय करना चाहिये उनके कोमल हाथों में धीमे जहर नुमा यंत्रों की जगह नाज़ुक फूल-पत्तियां पकड़ाना चाहिये हिंसक कार्टून चरित्रों की जगह पंचतंत्रके बोलते जीवन के अनमोल सबक देने वाले जानवरों की कहानियां पढ़ने प्रेरित करना चाहिये, विदेश की भाषा में पारंगत बनाने के पहले अपने देश की जुबान में दक्ष बनाना चाहिये और बेकार का ज्ञान बढ़ाने की जगह अपना इतिहास अपने ऐतिहासिक-पौराणिक नायकों की जीवन गाथा सुनाना चाहिये जिससे कि वो जमीन से जुड़े रहे न कि कल्पना के इन चरित्रों की तरह काल्पनिक बन हकीकत से मुंह मोड़ ले... आज 'बाल-दिवस' पर उनको यही सीख देना चाहिये... तभी तो बनेगा सार्थक बचपन... :) :) :) !!! 
_________________________________________________
१४ नवंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
--------------●------------●

कोई टिप्पणी नहीं: