सोमवार, 2 नवंबर 2015

सुर-३०६ : "हिंदी सिनेमा के आधार स्तंभ... 'सोहराब मोदी' को नमन...!!!"

दमदार आवाज़
एक अलग अंदाज़
जिसने बनाया
‘सोहराब मोदी’ को
हिंदी सिने सम्राट बेताज
जिस पर करता
पूरा हिंदुस्तान नाज़
आया उसका जन्मदिन आज
देते सब मुबारकबाद
कि उन्होंने दिया
हम सबको फिल्मों का
खज़ाना बेमिसाल
तो हमने आदर से पहनाया
उनके सर पर ताज
वो बन गये सिने जगत की
अद्भुत अनुपम पहचान
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मित्रों...,

एक वो भी जमाना था जब हिंदी सिनेमा ने जन्म लिया ही था बिल्कुल एक नवजात शिशु की तरह तो उसे चलना या बोलना कुछ भी नहीं आता था और ऐसे समय में उसकी परवरिश करने के लिये अनेक लोगों ने एक ज़िम्मेदार पालक की भांति पूर्ण समर्पण से ये पावन काज किया जिसमें एक नाम ‘सोहराब मेरवानजी मोदी’ का हैं जिन्हें कि हम सब ‘सोहराब मोदी’ के नाम से बेहतर तरीके से जानते हैं जिन्होंने आज ही के दिन लगभग सवा सौ साल पहले २ नवम्बर १८९७ को बम्बई (आज की मुंबई) में एक पारसी परिवार में जनम लिया था और अपनी प्रारंभिक स्कूली शिक्षा को समाप्त करने के बाद वे उस समय खेले जाने वाले छोटे-मोटे सभी तरह के नाटकों में काम करने लगे जो कि उस समय सभी जगहों पर घूम-घूमकर दिखाये जाते थे अर्थात इन नौटंकी या ड्रामा का प्रदर्शन घुमंतु (ट्रवेलिंग एक्जबीशन) होता था क्योंकि उस वक़्त ये किसी थियेटर में रुक कर नहीं खेले जाते थे बस यही से उनके अंदर अभिनय के प्रति लगाव का अंकुर भी फूट गया और उम्र बढ़ने के साथ ही  उन्होंने ग्वालियर के टाउन हॉल में जम कर इस तरह के नाटक करने प्रारंभ कर दिये और कहते हैं कि उनको ही भारतीय जनता को महान रचनाकार ‘शेक्सपियर’ से परिचित करवाने का श्रेय दिया जाता हैं कि उन्होंने ‘शेक्सपियर’ लिखित अधिकांश नाटकों का उस समय ही न केवल मंचन किया बल्कि उन पर फिल्मों का निर्माण भी किया और इस तरह बहुत छोटी अवस्था में लगभग २६ साल में ही ‘सोहराब मोदी ने अपनी खुद की एक थियेटर कम्पनी बना ली  जिसे उन्होंने आर्य सुबोध थियेट्रिकल कम्पनी नाम दिया था बस, इस तरह उन्होंने अपने शौक को ही अपना पेशा बना लिया जो कि पहले से ही तय था तो उन्हें तो इस लाइन में आना ही था जिसकी नींव शायद उस समय ही पड़ गयी थी जब उनकी पढाई के दौरान उनके प्राचार्य महोदय ने उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व और जोरदार आवाज़ की वजह से उन्हें ये सलाह दी थी कि उनको या तो राजनीति के क्षेत्र में जाकर एक नेता के रूप में अपना कैरियर बनाना चाहिये या फिर फिल्मों में जाकर अभिनेता बन जाना चाहिये तो उन्हें यही लाइन पसंद आई और बस उसी दिशा में आगे बढने लगे इसके लिये उन्होंने छोटे स्तर से शुरुआत करते हुये पहले नाटक फिर थियेटर और उसके बाद अपने आपको पूरी तरह से मांजकर ही फिल्मों में पदार्पण किया

उन्होंने जब हिंदी सिने जगत में कदम रखा तब तक सिनेमा ने बोलना शुरू नहीं किया था अतः उस समय बनने वाली फ़िल्में मूक हुआ करती लेकिन उनके आगमन से सवाक फिल्मों का दौर भी शुरू हो गया था तो नाटक या थियेटर में काम करने वाले सभी अभिनेताओं ने इस तरफ का रुख किया  और चूँकि वे तो नाटकों के दीवाने थे अभिनय उनकी रग-रग में बहता था जिसके कारण ‘सोहराब मोदी लोगों की पसंद ही नहीं बल्कि बदलते समय की पदचाप भी सुनने में माहिर थे तो उन्होंने १९३५ में मात्र ३८ साल की उम्र में अपनी खुद की एक फ़िल्म कम्पनी की स्थापना की जिसका नाम स्टेज फ़िल्म कम्पनीथा इसी के अंतर्गत उन्होंने १९३५ में खून का खूनबनाई जो कि ‘शेक्सपीयर के नाटक हेमलेटपर आधारित थी याने कि जिस तरह के प्रयोग आज के फिल्म निर्देशक कर रहे हैं वो कोई नई बात नहीं ये आज से ७०-८० साल पहले के लोगों ने न सिर्फ सोचा बल्कि अंजाम भी दिया इसके बाद साल १९३६ में उन्होंने अपनी दूसरी फ़िल्म कम्पनी मिनर्वा मूवीटोनबनाई जिसके लिये आज तक उनको जाना जाता हैं इस बेनर के परचम तले उन्होंने उस समय के समाज की बुराइयों को उजागर करने वाली फ़िल्में बनाते हुये उन सभी मुद्दों को अपनी फिल्मों के जरिये सशक्त तरीके से भी उठाया और बस सिलसिला शुरू हुआ एक से बढ़कर एक बेमिसाल फिल्मों का  १९३८ में आई मीठा ज़हरजिसमें उन्होंने मद्य पान की लत से होने वाले परिणामों को दिखाते हुये एक सार्थक संदेश दिया फिर इसके बाद हिन्दु स्त्री के अधिकारों को लेकर उन्होंने तलाक जैसी जबर्दस्त फिल्म बनाई जिन्हें खूब सराहना मिली और इस तरह उन्होंने अपनी फिल्मों के माध्यम से अपने दर्शकों को लगातार शानदार फिल्मों, कलाकारों और कहानी से परिचित करवाया और सर्वाधिक पहचान मिली ऐतिहासिक चरित्रों को रजत पर्दे पर उतारने के लिये जिनमें सबसे पहले नाम आता हैं मुगल सम्राट जहाँगीर की न्यायप्रियता को सामने लाने वाली फिल्म पुकार’, फिर विश्व विजेता का ख़्वाब लिये हमारे देश में आने वाले सिकंदरऔर उसके बाद ‘के. एम. मुंशी’ लिखित कहानी पर बनी  पृथ्वी वल्लभ, ‘झाँसी की रानी’, ‘जेलर’, ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’, ‘नौशेरवान-ए-आदिल जिन्होंने उनको पूरी तरह से स्थापित कर दिया और इस तरह उन्होंने परतंत्र भारत की गुलाम जनता को सर उठाने के लिये प्रेरित करने का काम भी किया

शायद सभी को ज्ञात हो कि १९५३ में बनी झाँसी की रानीहमारे देश की पहली टेक्नीकलर फ़िल्म थी जिसके लिये मोदी ने उस दौर में ही खास तौर पर हॉलीवुड से तकनीशियन्स बुलवाए थे जो ये दर्शाता कि आजकल जो भी हम देख रहे उनका चलन बहुत पहले से ही प्रारंभ हो गया था और उनकी फिल्म ‘सिकंदर’ में फिल्माये युद्ध के दृश्यों की तुलना तो आज के समय की बहुचर्चित फिल्म ‘बाहुबली’ से भी की जा रही हैं ये उनके अद्वितीय निर्देशन का कमाल ही कहा जायेगा कि उन्होंने इतिहास के नायकों को पर्दे पर जीवंत किया तो उस कालखंड को भी ज्यों का त्यों उतार दिया जिससे देखने वाले मंत्रमुग्ध होकर देखते ही रह गये और उनकी संवाद अदायगी का तो वो आलम था कि कहते हैं अंधे भी केवल उनकी आवाज़ सुनने के लिये सिनेमा हॉल में आते थे और शेर सी गूंजती इस दमदार आवाज़ के कारण उनको ‘मिनर्वा का शेर’ भी कहा जाता था और उनकी बनाई फिल्मों व उनके इस अभूतपूर्व योगदान के कारण उनको विस्मृत कर पाना असम्भव हैं भले ही आज की पीढ़ी उन्हें न जानती हो लेकिन सिनेप्रेमी तो उनसे अवश्य परिचित होने केवल नाम ही काफी हैं... :) :) :) !!!
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०२ नवंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री

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