शुक्रवार, 6 नवंबर 2015

सुर-३१० : "अभिनय के रंग बेशुमार... देकर गये 'संजीव कुमार'...!!!"

अभिनय ऐसा
घुल गया रगों में
कि हर एक किरदार को
रजत पर्दे पर जीवंत कर दिया
तोड़कर उम्र की सीमायें
उतर गये पात्र की खाल में
इस तरह से गहरे कि
खुद को भूल उस चरित्र को ही
अपना वजूद मान लिया
बन गयी यादगार
उनकी निभायी हर भूमिका   
चाहे बने हो नायक, सहनायक
या फिर कोई खलनायक
सबको अंतर से भरपूर जिया
आज उस कलाकार
नाम जिसका ‘संजीव कुमार’
आई पुण्यतिथि तो
हर एक प्रशंसक ने
दिल से उसको याद किया
---------------------------------●●●
               
___//\\___

मित्रों...,
 
किसी भी कलाकार के लिये सबसे बड़ी तारीफ़ और गर्व की बात तब होती हैं जब सिनेमा के पर्दे पर निभायी गयी उसकी काल्पनिक भूमिका को देखने वाला असलियत में एक जीता-जागता अपने ही आस-पास का कोई जीवित चरित्र समझ उससे अपने आपको जोड़ लेता तथा उसको दर्शकों का बेशुमार प्यार मिलता फिर जब कोई अभिनेता ऐसा हो कि वो जब भी कोई भी पात्र अभिनीत करें तो लगे ही नहीं कि वो किसी तरह का अभिनय कर रहा हैं तो फिर उसे भूलना नामुमकिन होता क्योंकि तब तो वो उस पात्र के रुप में सदा के लिये अमर हो जाता और आज जिस अभिनेता की बात हम कर रहे हैं उसने तो जब भी जो भी चरित्र रुपहले परदे पर निभाया उसे देख कर लगा ही नहीं कि वो कोई अभिनय हैं बल्कि देखने वाले ने तो उसे उसके नाम से नहीं बल्कि जिस पात्र को उसने अभिनीत किया उसके नाम से जाना और इस तरह उसका हर एक रोल अविस्मरणीय बन गया चाहे फिर वो कोई भी फिल्म हो हमने उसकी वजह से उसे देखना पसंद किया और आज भी जब भी किसी चैनल पर उसकी कोई फिल्म आती तो देखने वाले उसमें ही खोकर चैनल बदलना तक भूल जाते कि उन्हें ये अहसास होता ही नहीं कि वो कोई फ़िल्मी कहानी देख रहे हैं जो न तो आज की हैं और न ही उसमें अभिनय करने वाला वो अभिनेता अब इस दुनिया में ही हैं लेकिन यही तो एक कलाकार की खूबी होती कि वो भले ही इस दुनिया से चले जाए लेकिन अपनी कला का खजाना अपनी विरासत के रूप में अपने चाहने वालों के लिये छोड़ जाता जिसे देख-देख कर वो उसे सदैव याद करता हैं

‘हरिभाई जरीवाला’ जिन्हें कि हम सब ‘संजीव कुमार’ के नाम से बखूबी जानते हैं वे ९ जुलाई १९३८ को एक साधारण गुजराती परिवार में पैदा हुये थे और बचपन से ही उनके मन में अभिनय के प्रति आंतरिक रूचि थी जिसकी वजह से वे अपने स्कूलों में खेले जाने वाले नाटकों में भाग लेना शुरू कर दिया और उसके बाद इसी क्षेत्र में अपना मुकाम बनाने की खातिर उन्होंने फ़िल्मालय के एक्टिंग स्कूल में प्रवेश लेकर अभिनय की बारीकियां सीखना शुरू कर दिया और यही रहते हुये उन्हें १९६० में ‘हम हिंदुस्तानी’ फिल्म मिली जिसे कि ‘स्टार ऑफ़ मिलेनियम’ अभिनय के शहंशाह ‘अमिताभ बच्चन’ की भी पहली फिल्म माना जाता हैं वैसे तो इसमें उनका रोल अत्यंत छोटा था लेकिन इस तरह से उन्हें फ़िल्मी संसार में पदार्पण करने का सुनहरा अवसर तो मिल ही गया और फिर चला ‘संघर्ष’ के पथरीले रास्ते का एक कठिन दौर जिसमें कोई भी उल्लेखनीय काम नहीं मिला लेकिन तकदीर में जो लिखा था वो तो होना ही था तो आठ साल के इस कठिन दौर को गुजारने के बाद १९६८ में उन्हें मिले ‘शिकार’ फिल्म जिसमें कहने को तो उनकी सहनायक की भूमिका थी और नायक थे ‘धर्मेंद्र’ लेकिन इस मौके को उन्होंने इस तरह से भुनाया कि उस वर्ष का ‘सर्वश्रेष्ठ सहनायक का फिल्मफेयर’ ख़िताब उनके हिस्से में आया जिसने फ़िल्मी दुनिया में उनके लिये सफलता के साथ ही जोरदार आगाज़ का मार्ग तैयार कर दिया क्योंकि इसी साल आई ‘संघर्ष’ फिल्म ने उनके संघर्ष को विराम दिया जिसमें उनको अभिनय सम्राट ‘दिलीप कुमार’ के साथ सह-अभिनेता की भूमिका निभाने का वही अवसर मिला जिसकी उनको तलाश थी और वे अपने प्रभावशाली अभिनय से दर्शकों के दिलों में अपनी गहरी छाप छोड़ने में सफल रहे ।

इसके बाद उनके अद्भुत अभिनय की वो बेमिसाल पारी शुरू हुई जिसमें उनके प्रशसंकों को उनके अभिनय के एक से बढ़कर एक रंग देखने की मिले जब उनके सामने एक के बाद एक 'आशीर्वाद', 'राजा और रंक', 'सत्यकाम' और 'अनोखी रात' जैसी फिल्मों ने सफ़लता के नये-नये सोपान दिये जिन पर कदम रखते हुये वे ऊंचाइयों पर पहुँचते गये ऐसे में १९७० में आई 'खिलौना' फिल्म जिसने अपार सफलता अर्जित करने के साथ ही अभिनेता ‘संजीव कुमार’ को फिल्म इंडस्ट्री में एक कामयाब अभिनेता के रुप में स्थापित कर दिया और उनकी एक अलहदा पहचान भी बना दी और इसी साल आई मील का पत्थर कहलाई जाने वाली एक अनोखी शैली की एकदम अलग ही मिज़ाज की कथा ‘दस्तक’ जिसने उनको अपने अभिनय के लिये प्रथम ‘राष्ट्रीय सम्मान’ भी दिलाया फिर इसके बाद १९७२ में आई ‘कोशिश’ जिसमें उन्होंने एक गूंगे-बहरे व्यक्ति का इतना संवेदनशील अभिनय किया कि उनको देश ने पुनः ‘राष्ट्रीय पुरस्कार’ से सम्मानित किया और अब निर्देशकों को भी उनके  बेमिसाल अभिनय क्षमता के नये-नये आयाम देखने को मिले जब उन्होंने इसके बाद ‘नया दिन नयी रात’ में एक ही साथ नौ अलग-अलग किरदारों के माध्यम से अभिनय के नवरसों को एक साथ फ़िल्मी पर्दे पर बड़ी आसानी से उतार दिया और ‘शतरंज के खिलाडी’ में तो अभिनय की नयी इबारत लिख दी जिसे केवल देखकर ही पढ़ा जा सकता हैं

इस तरह उन्होंने लगातार ये सिलसिला जारी रखते हुये ‘सीता और गीता’, ‘अंगूर’, ‘अनामिका’, ‘मनचली’, 'मुक्ति', ‘आंधी’, त्रिशूल, 'पति पत्नी और वो', 'देवता' , 'जानी दुश्मन', 'गृहप्रवेश', 'हम पांच' , 'चेहरे पे चेहरा' , 'दासी' , 'विधाता' , 'नमकीन' , 'मौसम' ,'हीरो'  और ‘विधाता’ तक अनेक फ़िल्में की जो आज भी उनको हम सबके बीच उसी तरह से जीवित रखे हैं जिस तरह से और जिस तरह की किरदार को उन्होंने निभाया हैं और हमारी बदकिस्मती कि आज ही के दिन ०६ नवंबर १९८५ को एकाएक आये हृदयाघात ने उनको असमय ही अल्पायु में हमसे जुदा कर दिया तो आज उनकी पुण्यतिथि पर शब्दों की ये पुष्पांजलि उनको अर्पित करते हुये ‘अल्लामा इक़बाल’ का ये शेर उधार लेती हूँ ----

"हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है
 बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा”

सच... कुछ लोगों पर ये पंक्तियाँ बड़ी ही सटीक बैठती हैं जिनमें से ‘संजीव कुमार’ भी एक हैं... :) :) :) !!!      
__________________________________________________
०६ नवंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
--------------●------------●

कोई टिप्पणी नहीं: