सोमवार, 30 नवंबर 2015

सुर-३३४ : "दबाब जरूरी हैं... जो आगे बढ़ाये...!!!"


तमन्नायें अधूरी
इसलिये तो नहीं होती
कि उनको पाने की
कोशिश नहीं की गयी
या फिर जो भी किया गया
उसमें लगन की कमी थी
बल्कि पाने की तीव्रता में ही
वो उफ़ान न था
जो लपक लेता मंजिल को 
तभी तो कुछ पल में ही
जोश का वो झाग बैठ गया
होकर शांत जेहन की तलहटी में
वरना, वो दे सकता था
ऐसा उछाल कि
छूना आसमां भी आसां हो जाता
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मित्रों...,

‘चाँद’ जो चमकता आसमान पर जिसे निहारते सब और देखते अपनी अतृप्त इच्छाओं का अक्स उस आईने में तभी तो जहाँ किसी को उसमें अपने महबूब का दीदार होता तो किसी को रोटी और किसी को अपनी उन कामनाओं का जिसे वो या तो पाना चाहते या फिर जिन्हें न पाने की कसक <3 को टीसती रहती तो तन्हाई में रात के उस एकाकी हमसफ़र को अपने उस नितांत चुभने वाले पलों का  साथी बना लेते और कभी-कभी उससे गुफ्तगू भी करने लगते लेकिन यदि उन्होंने अपनी ख्वाहिश को मन की भीतर जन्म लेते ही उसकी शिद्दत को भी महसूस कर लिया होता तो आज शायद, ये दिन न देखना पड़ता... जी हाँ... अक्सर हम सब कई तरह की इच्छायें अपने अंतर में पालते हैं पर, केवल चंद ही उनकी अहमियत को भी उतनी ही गहराई से समझ पाते तभी तो उसे पाने जी-जान लगा देते बाकी तो उसे पाने की कोशिश तो करते लेकिन उसमें उसे पूरा करने की ‘तीव्रता’ का अहसास मिलाना भूल जाते तो फिर वो भी केवल कुछ कदमों के फ़ासले पर उनके हाथ में आने से चूक जाती कि सिर्फ कामना करने मात्र से ही तो वो ‘इच्छित वस्तु’ हासिल नहीं होती उस तक पहुँचने के लिये अतिरिक्त प्रयास भी तो करना पड़ता जो उसकी प्राप्ति के लिये एक ‘प्रेरक कारक’ बोले तो ‘फ़ोर्स’ का काम करता जिससे कि जहाँ बाकी लोग कुछ दूरी पहले ही हिम्मत हार जाते या उनका दम फूल जाता वहीँ आप उस अंतिम सिरे को फलांग किसी ‘विजेता’ की तरह अपनी ख्वाहिश की वो ‘ट्राफी’ अपने हाथों में लेकर पूर्ण संतुष्टि से अपने जीवन की शामें गुज़ारते जबकि हारने वाले केवल ‘चाँद’ को ही देख-देख अपनी रातें बिताते     

हर किसी को कुछ न कुछ पाने की चाह तो जरुर होती पर, कितने जिनकी उस चाहत के प्रति उतनी ही गंभीरता भी शामिल होती हो सकता हैं कुछ शुरूआती दिनों में वो जोश और लगन बेशक उत्साहित करें पर, फिर थोड़े दिनों बाद ही ये लगता कि यार, रहने दो इसके बिना भी तो कोई कमी न रहेगी या यदि ये न मिले तो कौन-सा जीवन की गाड़ी रुक जायेगी तो वे आधे रास्ते पर ही थककर बैठ जाते या न भी बैठे तो किसी और राह पर चल पड़ते और इस तरह भटकते-भटकते जब अंततः न तो कोई रास्ता बचता और न ही किसी तरह का कोई जुनून या फिर कोई भी इच्छा तो फिर किनारे पर बैठकर मलाल करते कि काश... पहले ये अहसास होता कि इसके बिना जीना कितना दूभर होगा तो कोई कसर बाकी न रखते और यही वजह कि हर किसी की ज़िंदगी में एक ‘काश’ तो शेष रह ही जाता जो उन्हें हर पल अपनी उस भूल का ध्यान दिलाता रहता... तो अब से ये जान ले कि ‘दबाब’ भी जरूरी होता... आगे बढने के लिये... जम्प लगाने के लिये... :) :) :) !!!    
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३० नवंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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