शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

सुर-३३१ : "मधुशाला की हाला... भरती मन का प्याला...!!!"


मधुशाला’
अब तक न
हुआ खाली प्याला
भरी उसमें
अनंत भावों की हाला
जिसे पढ़कर
कटता मन का जाला
कहता पीने वाला
ला... ला... और ला...
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मित्रों...,

‘हालावाद’ के जन्मदाता ‘डॉ हरिवंश राय बच्चन’ को सिर्फ़ हिंदी साहित्य में अपने अविस्मरणीय योगदान के लिये ही नहीं बल्कि अपनी कलम, आकर्षक व्यक्तित्व और प्रभावशील आवाज़ से सारी दुनिया में अपने लेखन से अपनी मातृभूमि का नाम रोशन करने के लिये भी जाना जाता हैं कि उस वक़्त जबकि न तो कलमकारों की ही कमी थी और न ही विषयों की तब ऐसे समय में उन्होंने अपनी एक अभिनव पहचान बनाने के लिये एक अलहदा अंदाज़ चुना जिसके कारण हर चाहनेवाले ने उनको दिल से अपनाया तो हर आलोचक ने भी अपने ढंग से सराहा इसलिये तो उनके प्रशंसकों का जमावड़ा दिनों-दिन बढ़ता ही गया जो उनको सुनने के लिये दूर-दूर से दौड़े चले आते थे कुछ तो उनकी झलका देखने भी लालयित रहते कि उनकी चुम्बकीय छवि में अपनी ही तरह का एक अलहदा आकर्षण था जो विरासत में उनके पुत्र सदी के महानायक ‘अमिताभ बच्चन’ को भी प्राप्त हुआ जिन्हें कि उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति माना जाता हैं वाकई... एक लेखक सिर्फ शब्दों से ही सृजन नहीं करता बल्कि उसके हर कर्म में ही कुछ नूतन गढ़ने का भाव झलकता तो फिर उसकी संतान किस तरह इससे वंचित रह सकती भले ही फिर ये कहा जाये कि ‘अमिताभ’ को बनाने में उनकी माताजी ‘तेजी बच्चन’ का ही हाथ था लेकिन उनकी रगों में तो उनके पिता ने लहू के संग ही अपने विशिष्ट गुणों का भी संचार कर दिया था जिसने उनके भीतर उनकी ही तरह लेखनी के साथ-साथ उसे अपने ही तरीके से प्रस्तुत करने का अद्भुत स्वर भी प्रदान किया था तभी तो ‘मधुशाला’ को सुनने वाले सिर्फ और सिर्फ ‘बच्चन साहब’ के कंठ से उसका रसास्वादन करना चाहते

एक ‘हाला’ जिसे लोग गम गलत करने के लिये इस्तेमाल करते तो एक वो जिसे पीकर नहीं बल्कि सुनकर ही आनंद सागर में गोता लगा सकते साथ ही इसमें इतना गहरा दर्शन भी छुपा हुआ जिसके लिये शब्दों के अर्थ में नहीं बल्कि उसके उन मायनों में खोना पड़ता जो सहज में ही दिखाई नहीं देते लेकिन जिनकी अनुभूति करने पर वे स्वतः ही स्पष्ट भी हो जाते यही वजह कि ‘मधुशाला’ और उसके ‘रचनाकार’ दोनों को साहित्य जगत में एक विलक्षण स्थान प्राप्त हुआ जिसे उनके बाद भी अब तक कोई हासिल नहीं कर पाया कि जितनी भी बार उनके लिखे को पढ़ा जाता उतनी ही बार उसके कुछ नूतन अर्थ सामने आते पढ़ने वाले ‘मधु’ के अथाह सागर में डुबकी लगाकर ‘अर्थों’ के अनमोल मोती ढूंढकर लाते उन पर शोध करते और ये प्रयास करते कि काश वे भी उनकी तरह लिख सकते तो सहज ही उस मुकाम को भी हासिल कर लेते पर, क्या किसी की नकल कर उसके समकक्ष पहुंचा जा सकता हैं ये प्रयास तो कईयों ने किया और तरह-तरह से उनकी लकीर छोटी कर भी खुद  को उनसे उच्च साबित करने की भी कोशिशें की पर, ये भूल गये कि उस व्यक्ति ने तो स्वयं ही अपनी अलग राह चुनी और अपने लिये एकदम नया, एकदम अलग एक अनूठा विषय चुना कि सबके बीच भी अपनी एक अलहदा पहचान बना सके और वही हुआ जो उन्होंने सोचा था वे लोग जो ‘उमर खय्याम’ की रुबाइयों को विस्मृत कर उस विधा से दूर हो गये थे उनको एक नये पात्र में नई शैली में लोगों के सामने परोसा तो साहित्य प्रेमी जो नीरसता से ऊबे हुये थे इस छलकते प्याले के रस में सराबोर होकर झूम उठे फिर क्या था एक के बाद एक कृतियों का अनवरत सिलसिला शुरू हो गया मधुशाला, मधुबाला, मधु कलश, निशा निमंत्रण, एकांत संगीत, हलाहल, मिलन यामिनी, सोपान, जनगीता आदि ।

जितनी सहजता-सरलता से उन्होंने अपनी कलम से  हर विषय पर अपने अहसासों को लिखा उतनी ही साफगोई एवं सच्चाई से अपनी आत्मकथा को भी अपने पाठकों के समक्ष बिना किसी हेर-फेर या बिना किसी लाग-लपेट के चार खंडों में सबके सामने पेश कर दिया जिसे कि हिंदी साहित्य की अप्रतिम धरोहर माना जाता हैं तो आज सदी के इस महान रचनाकार को जन्मदिवस पर मन से नमन... :) :) :) !!!                     
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२७ नवंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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