गुरुवार, 5 नवंबर 2015

सुर-३०८ : "लघुकथा - गृहलक्ष्मी...!!!"

             
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मित्रों...,

दस साल की ‘पूर्वी’ आंगन में खेल रही थी और वहीँ उसकी माँ भी बैठकर चावल बीन रही थी कि अचानक उसकी गेंद उछलकर थाली पर पड़ी जिससे कि सारे चावल वहीँ आंगन में बिखर गये और वो नादान मासूम अपने बचपने में उन्हीं दानों पर पैर रखकर अपनी गेंद उठाने कि तभी उसकी माँ ने टोका, बेटी आपको कितनी बार समझाया कि अन्न देवता होते हैं इन पर पैर नहीं रखते तुरंत वो अबोध बालिका बोली, पर माँ मैंने तो कई फिल्मों और सीरियल्स में देखा हैं कि जब भी नई दुल्हन ससुराल में आती हैं तो इन्हीं को अपने पांव से गिराकर ही घर के अंदर घुसती हैं       

माँ उसके मुख से इतनी गहरी बात सुन सोच में पड़ गयी कि बच्चे भी कितना कुछ समझते हैं सच ही तो कहा उसने कि वो ही तो गृहलक्ष्मी हैं तो वात्सल्यता से उसके सर पर हाथ फेरकर बोली, तू ही तो मेरी ‘लक्ष्मी’ हैं ये सब तेरी वजह से ही तो हैं एक दिन तू भी तो इसी तरह किसी के घर जाएगी और उस दिन की कल्पना कर उनकी आँखों में नमी आ गयी जिसे छूपा सरे चावल समेटती वो अंदर चली गयी
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०४ नवंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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