शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

सुर-३२४ : "परवाह नहीं किसी की... तो, अपेक्षा क्यों दूसरों की परवाह की...!!!"


हूं...
ये लोग
ये समाज
ये दुनिया
मुझे किसी से
कोई सरोकार नहीं
न ही किसी की
कोई परवाह ही हैं
इनके चक्कर में पड़
अपनी जिंदगी को
बेजार नहीं करना हैं
जो जी में आये
बस, वही सब करना हैं
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मित्रों...,
‘रितिका’ अपने माता-पिता की लाड़ली बिटिया बड़े नाजों-नखरे से पली हर ख्वाहिश मुंह खोने से पहले पूरी हुई तो फिर मिजाज़ तो शाही होने ही थे तो वही हुआ... बचपन से लेकर जवानी तक किसी से सीधे मुंह न बात करना सबकी हंसी उड़ाना खुद को सर्वश्रेष्ठ समझाना कि ऐसी कोई चीज़ नहीं जो उसे हासिल नहीं दूसरे के लिये जो सोचना भी नामुमकिन वो उसके सामने हाज़िर तो सिवाय इसके क्या होना था कि उन्होंने सबको धता बताना शुरू कर दिया क्योंकि हर कोई उनकी नजर में उसके स्तर से कमतर था इस वजह से उसके तो पाँव भी जमीन पर न पड़ते थे सदा हवा के घोड़े पर सवार सबसे उलझती रहती कोई कुछ समझाये या बताने की कोशिश करें तो उसके लबों से तुरंत निकलता ‘Whose care...!!!’ सबको सुनकर सही भी लगता कि भई जिसके पास दुनिया की तमाम खुशियाँ मौज़ूद हो जिसके लिये कुछ भी पाना मुश्किल न हो वो भला किसलिये किसी की परवाह करें बल्कि लोगों को उसकी फ़िक्र करना चाहिये आख़िर इनकी परवाह करने का दायित्व उन लोगों का ही तो हैं   

पर, क्या धन-दौलत या सामर्थ्य हो तो हमें ये इख्तियार मिल जाती कि हम अपने आस-पास रहने वाले लोगों, अपने ही समाज और हमसे मिलने वालों को अंगूठे की नोंक पर रखे किसी एकाध के साथ ये जीवन भर चल भी सकता लेकिन अमूमन अधिकतर लोगों को तो इस तरह के अड़ियल रवैये का खामियाजा भुगतना ही पड़ता क्योंकि ‘सही’ या ‘गलत’ हर तरह की स्थिति एवं आपकी क्षमताओं से अलग अडिग रहता आपके पास अगर दौलत के पंख हैं तो इसका मतलब नहीं कि कभी भी आपको किसी की भी जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि कितनी भी सुख-सुविधायें या सामान क्यों न हो हमारे आस-पास मगर, यदि हमारे अहसासों को बाँटने कोई भी न हो तो सब नीरस और बेमानी हो जाता आखिर, ये चीजें जीते-जागते इंसान की जगह तो नहीं ले सकती न... न तो ये आपसे आपका सुख-दुःख ही पुछ सकती हैं और न ही आपके साथ मुस्कुरा सकती हैं या आपके बहते आंसुओं को ही पोंछ सकती हैं और न ही आपसे बतिया सकती हैं जिसके बिना आपके अंदर का सूनापन बढ़ता ही जाता क्योंकि ये चीजें केवल बाहरी जगह को भरती पर, भीतर तो सब ख़ाली ही रहता जिसकी पूर्ति केवल मानवीय साथी से ही पूरी हो सकती जो आपका दोस्त या जीवनसाथी या रिश्तेदार या पारिवारिक सदस्य किसी के भी रूप में हो सकता हैं

अंतत यही हुआ ‘रितिका’ के साथ जब शादी के बाद भी उसका रवैया बिलकुल न बदला शुरुआत में तो उसके पति ‘आदित्य’ को उसकी हर डिमांड पूरा करना अच्छा लगता इसलिये तो उसके इसरार करने पर उसने अपने भरे-पूरे परिवार को भी छोड़ उसके साथ अमरीका बसने का फैसला कर लिया पर ये सब कब तक उसकी मर्जी के मुताबिक चलता रहता एक दिन दिन ‘आदित्य’ को समझ आ गया कि जिसे उसने उसकी छोटी-मोटी आरजू या बचपना समझा था दरअसल वो उसका अड़ियल व्यवहार था तो फिर उसने अलग होने का निर्णय ले लिया फिर अकेले रहती-रहती ‘रितिका’ हर तरह की सुविधाओं से उब गयी और उसके आस-पास मंडराने वाले चापलूस भी अपनी हद से ज्यादा उसे बर्दाश्त न कर छोड़ चले गये तो उसे अकेलापन महसूस हुआ तब उसने जिसे भी कॉल किया या मिलना चाहा उसे ही व्यस्त पाया तो उसे अपनी गलतियों का अहसास हुआ कि जब उसने कभी किसी की परवाह नहीं की तो अब वो किस तरह दूसरों से ये अपेक्षा कर रही कि वो उसकी परवाह करे जब तक ये हो सकता था हुआ पर, अब भी यदि उसने खुद को न बदला तो फिर अंत में भी कोई उसके पास न आयेगा तो उसने खुद को बदलने का निर्णय लिया और जब लोगों को समझाना भी शुरू किया कि----    
    
“कुछ लोगों की जुबान पर अक्सर ये जुमला रहता हैं कि मुझे किसी की परवाह नहीं ।

वो ये याद रखें कि जो लोग दूसरों की परवाह नहीं करते उन्हें कोई हक नहीं कि वो दूसरों से अपेक्षा करें कि वो उनकी परवाह करें” ।।

आखिर जीवन भर के अनुभवों का निचोड़ था किस तरह न लोगों को छूता सब उससे सहमत हुये और फिर उसने ‘मोटिवेटर’ बन आगे की जिंदगी बिताने की रह चुनी जिसने उसके अंदर सकारात्मक ऊर्जा भर उसके जीवन की दिशा ही बदल दी... जिंदगी तो वही न... जो अपनी गलतियों से सबक ले... वरना, जीने को तो जीते हैं सभी... :) :) :) !!!    
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२० नवंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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