बुधवार, 18 नवंबर 2015

सुर-३२२ : "वी. शांताराम का निर्देशन... बना अद्भुत फिल्मांकन...!!!"


‘नवरंग’ बिखरे
सिनेमा परदे पर
तो ‘गीत गाया पत्थरों ने’
और ‘झनक झनक पायल बाजे’
फिर क्यों न ‘दो आँखें बारह हाथ’
उनको देख-देख भरमाये 
भले ही ‘दुनिया न माने’ पर
‘डॉ कोटनिस की अमर कहानी’
कोई ‘पड़ोसी’ तक  भुलाये न भूले
बांध सर पर ‘सेहरा’ दूल्हा ‘दहेज’ न मांगे
जब ‘वी. शांताराम’ की फिल्मों का जादू जागे ॥     
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मित्रों...,

ऐ मालिक तेरे बंदे हम
ऐसे हो हमारे करम
नेकी पर चले और बड़ी से तले
ताकि हंसते हुये निकले दम...

आज से लगभग ६ दशक पूर्व १९५७ पर फ़िल्मी पर्दे पर आई ‘दो आँखें बारह हाथ’ के इस गीत का प्रभाव अब भी उसी तरह लोगों के दिलों दिमाग पर कायम हैं यहाँ तक कि कई स्कूल, कॉलेज एवं संस्थाओं में तो इसे प्रार्थना के रूप में गाया जाता हैं क्योंकि इसकी सकारात्मक ऊर्जा सुनने वाले को भी उत्साहित कर सत्य के पथ पर चलने की प्रेरणा देती हैं किसी इतने पुराने फ़िल्मी गाने की ताजगी का यूँ ही लंबे समय तक बरकरार रहना ही अपने आप में सिद्ध करता कि इसे रचने वाला और सिने पर्दे पर साकार करने वाला कितना अधिक संवेदनशील एवं अदृश्य शक्ति के प्रति कृतज्ञता से भरा होगा कि उसके लिये अपने मनोभावों को अर्पित करने इतनी हृदयस्पर्शी रचना का सृजन किया जो १९५७ से आज तक लगातार हम सबका मार्गदर्शन कर रही हैं ।

चल जा रे हट नटखट
न छू रे मेरा घुंघट
पलट के दूंगी आज तोहे गाली रे
मुझे समझो न तुम भोलीभाली रे...

१९५९ में आई ‘नवरंग’ फिल्म का ये ‘होली गीत’ अब तक का सर्वश्रेष्ठ रंगोत्सव तराना माना जाता न केवल सुनने बल्कि देखने में भी इस गाने का कोई जवाब नहीं वो भी उस ज़माने में जब कि तकनीक इतनी विकसित नहीं थी निर्देशक ने अपनी कल्पनाओं के सारे रंग इसमें उड़ेल और एक नायिका को दो अलहदा अद्भुत अंदाज़ में दिखा रजत पर्दे पर एक अनोखा स्वपन दृश्य रच दिया जिसका रंग अब तक किसी के भी दिल से नहीं उतरा और जब भी कभी होली पर आये गानों की बात चलती तो सबके होंठो पर अपने आप ये गीत मचल जाता जो ये ज़ाहिर करता कि यदि पूर्ण मनोयोग से कोई काम किया जाता तो वो सदैव याद किया जाता हैं ।

पंख होते तो उड़ आती रे
रसिया ओ जालम
तुझे दिल का दाग़ दिखलाती रे...

‘सेहरा’ फिल्म का ये गाना ही नहीं बल्कि उसकी कहानी भी एकदम अनोखी और दिल को छू लेने वाली थी जिसमें कल्पनाशीलता की ऊंचाइयों को छूने का सफल प्रयास किया गया जो उसे निर्देशित करने वाले फ़िल्मकार की अनूठी शैली का महत्वपूर्ण फ़िल्मी दस्तावेज हैं जिसे हर फ़िल्मी प्रशंसक को जरुर देखना चाहिये कि किस तरह से एक-एक दृश्य की कल्पना कर उसे हकीकत का जामा पहनाकर रुपहले पर्दे पर साकार किया जाता हैं ।        

नैन सो नैन नाही मिलाओ
देखत सूरत आवत लाज सैया...

‘झनक झनक पायल बाजे’ हिंदी सिने जगत का एक ओर उत्कृष्ट शाहकार जिसके अलग-अलग तरह के नृत्य एवं गीत-संगीत का जलवा देखने वालों को अब तक अपने मोहजाल में फंसाया हुआ हैं और आगे आने वाले कई दशकों तक उसका जादू टूटने वाला नहीं क्योंकि ये ऐसे समय का सृजन हैं जबकि ये सब दिखा पाना इतना आसान नहीं था तभी तो ये गीत आज भी सुनने वालों के दिलों को उसी तरह धड़काने का काम रहा हैं ।

आज इन गीतों को याद करने का मकसद ये हैं कि इन सबको हिंदी सिनेमा के रजत पर्दे पर जीवंत करने वाले फ़िल्मी निर्देशक एक ही हैं ‘वी. शांताराम’ जिनकी आज पुण्यतिथि हैं जिनकी फिल्मों का गीत-संगीत अविस्मरणीय तो होता ही था साथ मनभावन फिल्मांकन का असर जेहन पर तारी हो जाता हैं क्योंकि वे संगीत के जानकार होने के साथ-साथ कला के अद्भुत पारखी भी थे जो बड़े सहज ढंग से दमदार व प्रभावोत्पादक सिनेमा का निर्माण करते थे जो फ़िल्मी जगत में मील के पत्थर बन आज तलक कायम हैं ।

भारतीय सिनेमा के नाज़ुक लड़खड़ाते नन्हे-नन्हे कदमों को सँभालने का काम अनेक पूर्ण रूप से समर्पित फिल्मकारों ने एक जिम्मेदार पालक की भांति किया जिनमें एक महत्वपूर्ण नाम ‘राजाराम वांकुडरे शांताराम’ का भी हैं जिन्हें उनके मुरीद ‘वी. शांताराम’ नाम से बेहतर तरीके से जानते हैं  जिन्होंने जीवन भर उत्कृष्ट संदेश युक्त समाज को जागरूक करने वाली सार्थक फिल्मों का निर्माण किया जिन्होंने दर्शकों को स्वस्थ मनोरंजन दिया तथा किसी भी तरह के प्रयोग करने में भी कभी पीछे न रहे और आज से साथ-सत्तर साल पहले ऐसी कहानियों को चुना जिस तरह की उस वक्त कल्पना करना भी संभव नहीं था और समाज में फिली लगभग हर तरह की कुरीतियों पर एक सशक्त फिल्म बनाई आज हम खुले जेल के बारे में जो बात करते हैं उसकी सर्वप्रथम कल्पना इन्होने ‘दो आँखें बारह हाथ’ में की जिस पर उसके बाद भी कई नकल बनी पर, कोई उसकी बराबरी न कर सकी इसी तरह विधवा विवाह पर ‘दुनिया न माने’ जैसी अलहदा फिल्म भी इतिहास में हमेशा दर्ज रहेगी तो दहेज प्रथा पर भी उन्होंने उसी समय ‘दहेज’ जैसे शानदार फिल्म का निर्माण किया जिसे देखकर हर किसी के नयन नम हो सकते हैं क्योंकि उन्होंने उसकी नब्ज को पकड़ हूबहू उन दृश्यों की कल्पना कर उनको परदे पर उतारा जैसा कि हकीकत में होता था यहाँ तक कि ऐसा भी कहा जाता हैं कि हिंदुस्तानी फिल्मों में एनिमेशन का प्रयोग भी सर्वप्रथम उन्होंने ने ही किया और १९३५ में एनिमेटेड ‘जंबू काका’ बनाई और प्रथम रंगीन फिल्म बनाने का सेहरा भी उनके ही सर पर बांधा जाता हैं कि १९३३ में आई 'सैरंध्री' उसी प्रयोग का उत्तम उदहारण हैं ।  

आज ऐसी प्रयोगधर्मी कल्पनाशील स्वपनदर्शी निर्देशन की पुण्यतिथि पर सभी चाहने वालों की तरफ से मन से नमन... :) :) :) !!!
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१८ नवंबर २०१५
© ® सुश्री इंदु सिंह “इन्दुश्री’
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