रविवार, 31 जनवरी 2016

सुर-३९६ : "आधे-अधूरे प्रेम ने बनाया... 'सुरैया' को मुकम्मल फ़नकार...!!!"

दोस्तों...

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कानों में रस घोलती
वो सुरीली मद भरी आवाज़
सुनकर जिसे बज उठता
मन का मधुर साज़
दर्शकों को दीवाना बनाते
उसके नाजों अंदाज़ 
जिसने उसके सर पहनाया
बेशुमार लोकप्रियता का ताज़
नायिका-गायिका दोनों ही रूप में
‘सुरैया’ समान नहीं कोई
हरफ़नमौला अदाकार
जिसके गाये सदाबहार नगमे
अभिनीत बहुरंगी भूमिकायें       
करता याद हिंदी सिनेमा भी आज
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ये न थी हमारी क़िस्मत
कि विसाले यार होता
अगर और जीते रहते
यही इंतज़ार होता...

सन १९५४ में राष्ट्रपति के ‘स्वर्ण कमल’ से सम्मानित और ‘सुरैया जमाल शेख़’ की अदाकारी व गायिकी से सजी ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ फ़िल्म में गाई इस गज़ल को यूँ तो अनेक फनकारों ने अपनी आवाज़ दी मगर, जिस तरह से ‘सुरैया’ ने गाया उसका कोई सानी नहीं क्योंकि इसमें उनकी अपनी जिंदगी की भी दुखद सच्चाई बयाँ होती हैं वाकई... उस नायिका-गायिका के कहने को तो अनगिनत चाहने वाले थे सिर्फ़ अपने देश ही नहीं विदेश में भी उनकी लोकप्रियता का डंका बजता था जिसे सुनकर हालीवुड स्टार ‘ग्रेगरी पेक’ एवं ‘फ्रेंक काप्रा’ तक उनके रूबरू मिलने ‘भारत’ चले आये थे लेकिन वो जिसकी तीरे नजर की शिकार थी उसकी न होने पाने की पीड़ा को ताउम्र तन्हां सहते हुये आज ही के दिन ३१ जनवरी २००४ को इस दुनिया से कूच कर गयी लेकिन उनके गाये अधिकांश नगमों में उनके आधे-अधूरे प्रेम प्रसंग की आंतरिक वेदना को महसूस किया जा सकता हैं जो उनकी नानी की वजह से अपने मुकाम को हासिल न कर सका क्योंकि उस जमाने में खुदमुख्तार होने के बावजूद भी एक ख़ानदानी, परंपराओं व मज़हब की बेड़ियों से जकड़ी लड़की को अपने से ज्यादा परिवार वालों की इच्छा व मान-सम्मान का ख्याल रखना पड़ता था नहीं तो वो अभिनेत्री जिसका हर कोई दीवाना था, वो जिसकी दीवानी थी अपने परिजनों के खिलाफ़ जाकर उसे अपना न बना सकती थी तो जितना भी जीवन मिला था उतने बरस तक जीती तो रही पर, महज़ सांस लेकर उसमें से जिंदादिली, जीने की वो खुबसूरत वजह तो निकल ही गयी थी जिसने उनको बड़ी शिद्दत से अपने वज़ूद का कोमल अहसास कराया था
   
आपसे प्यार हुआ जाता हैं
जीना दुश्वार हुआ जाता हैं...

अपने ख़्वाबों के शहज़ादे की छवि को मन में बसाकर ही उनके कंठ से ये अल्फ़ाज़ निकले होंगे जो अपने जमाने की हुस्न व गायिकी की मल्लिका कहलाई जाती थी और उनकी लोकप्रियता का तो वो आलम था कि कोई चीज़ नहीं जिस पर उनकी तस्वीर चस्पा न हो, कोई व्यक्ति नहीं जो उनका मुरीद न हो पर, उनका दिल तो ‘देव आनंद’ के नाम पर धड़कता था जिनसे मिलते ही अदाओं की उस शहज़ादी पर उस अदाकार की भोली-भाली अदाओं का जादू चल गया तो फिर ये गीत तो गाना ही था---   

धड़कते दिल की तमन्ना हो, मेरा प्यार हो तुम
मुझे करार नहीं, जब से बेकरार हो तुम...

अपनी खनकदार आवाज़ और नफ़ासत भरे अंदाज़ से हर किसी को अपना बना लेने वाली ‘सुरैया’ की मनमोहक सदाबहार कहलाये जाने वाले ‘देव आनंद’ से पहली मुलाकात १९४८ में ‘विद्या’ फ़िल्म के सेट पर हुई ये उस समय की बात हैं जब ‘सुरैया’ तो नामचीन बन चुकी थी लेकिन ‘देव आनंद’ अभी उस पोजीशन को हासिल करने संघर्ष कर रहे थे तो शूटिंग के दौरान उनके अंदर कुछ घबराहट थी जिसे देख वे उनके नजदीक गयी और उनकी हौंसला आफज़ाई करने के उद्देश्य से बोली, ‘आपने तो मुझे मेरे मनपसंद कलाकार ‘ग्रेगरी पैक’ की याद दिला दी’ जिसे सुनकर ‘देव’ एकदम सामान्य हो गये और बोले, ‘ओह ! आप ऐसा सोचती हैं’ बस, फिर क्या था अगले ही दिन से उन्होंने उनके प्रिय अभिनेता की नकल करना शुरू कर दी और ‘सुरैया’ के प्रति भी उनका नज़रिया बदल गया तो फिर उनको करीब लाने प्रेम दूत ने अपना तीर चलाया तो किस्मत ने भी बहाना गढ़ा जिसके कारण नाव के एक दृश्य के फिल्मांकन के समय अचानक नाव डूब गयी ऐसे में ‘देव’ ने एक बहादुर नायक की तरह अपनी हसीन नायिका की जान बचाई तो नायिका ने भी उनका एहसान मानते हुये कहा, ‘अगर, आज आप न होते तो मैं खत्म ही हो गयी होती’ तो तुरंत नायक न भी बड़ा प्यारा जवाब दिया, ‘अगर, आपको कुछ होता तो मेरी भी जिंदगी खत्म हो जाती’ बस, इन चंद लम्हों ने ही उनको सदा के लिये एक-दूजे का बना दिया और उस कालजयी मुहब्बत की दास्ताँ शुरू हो गयी जिसे हिंदी सिने इतिहास में आज तलक भी याद किया जाता हैं

ये कैसी अजब दास्ताँ हो गई हैं
छुपाते-छुपाते बयाँ हो गई हैं...

फिर वही हुआ जो होना था धीरे-धीरे उनकी मुहब्बत के किस्से आम होने लगे तो फिर उनके घरवाले सतर्क हो उनको दूर करने खलनायक बन सामने आ गये उन्हें लगता कि इनके विवाह से मज़हबी दंगे हो सकते हैं तो उन्होंने उनको हमेशा के लिये दूर कर दिया और अपने पैरों में खड़े होने के बाद भी ‘सुरैया’ में वो हिम्मत न थी कि वो अपनी नानी माँ का विरोध करे तो न चाहते हुये भी दोनों की राहें जुदा हो गयी---

चार दिन की चांदनी थी, फिर अँधेरी रात हैं
हम इधर हैं, वो उधर हैं बेबसी का साथ हैं...

यूँ तो उनकी आवाज़ में शुरू से ही एक कशिश थी पर, इस चार दिन के इस प्रेम ने उसमें दर्द का सुर भी मिला दिया तो उसके बाद उनकी गायिकी और भी निखर गयी बोले तो विरह की अग्नि में कुंदन की तरह तपकर नायाब बन गयी और फिर जब भी उनको इस तरह के दर्दीले नगमे गाने का अवसर मिला तो वे बेहद मकबूल हुये---
    
तेरा ख्याल दिल से भुलाया न जायेगा
उल्फ़त की जिंदगी को मिटाया न जायेगा...

जिसमें अनजाने ही उस कसक की सदा सुनाई देती जो उनकी साँसों में बस गयी थी जिसने अंतिम पलों तक उनको उस चाहत को भूलने नहीं दिया जो उनके लिये पल दो पल का साथ नहीं बल्कि जीवन भर का एकतरफ़ा अनुबंध बन चुका था तो फिर एकाकी रहते हुये उसे पूरी वफादारी से निभाया---   

निराला मुहब्बत का दस्तूर देखा
वफ़ा करने वालों को मजबूर देखा...

वफ़ा की ऐसी मिसाल फ़िल्मी दुनिया में कम ही देखने मिलती जहाँ रोज ही प्रेमी-प्रेमिकायें बदलती वहां ‘सुरैया’ के लिये ‘देव’ के सिवा सभी बेगाने बन गये थे जिनसे उनका कोई ताल्लुक नहीं था और दुनिया से ताल्लुकात बनाने की इच्छा भी खत्म हो गयी थी तो सबसे अलग-थलग अपनी अलग ही बस्ती बना ली थी---

जब तुम ही नहीं अपने
दुनिया ही बेगानी हैं
उल्फ़त जिसे कहते हैं
इक झूठी कहानी हैं...

जिसे चाहा वो तो मिला नहीं फिर किसी भी शय से दिल न बहला और उपरवाले से शिकवा बना रहा कि उसने उन दोनों को क्यों न मिलाया ?  

तेरी क़ुदरत, तेरी तदबीर मुझे क्या मालुम
बनती होगी कहीं तकदीर मुझे क्या मालुम
ओ मेरा दिलदार न मिलाया
मैं क्या जानूं तेरी ये ख़ुदाई ???

अपने भीतर की अनकही पीड़ा, अपने अधूरे अरमानों, अपनी अतृप्त चाहत को मन में छुपाये वे ख़ामोश इस जहां से चली तो गयी पर, हम सबके लिये छोड़ गयी अपने चंद शोख़ अल्हड़ तराने, चंद संजीदा नगमे, कुछ रूमानी गीत, कुछ दर्दीली गज़लें और अनेक विविध भूमिकाओं से अभिनीत कई फ़िल्में... जिनको सुनकर उनकी अलहदा गायिकी और देखकर उनकी अद्भुत अदाकारी का परिचय पाया जा सकता हैं जिसे विस्मृत करना मुमकिन नहीं इसलिये तो आज उनकी ‘पुण्यतिथि’ पर उनकी याद करते हुये श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं... :) :) :) !!!               
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३१ जनवरी २०१८
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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