मंगलवार, 19 जनवरी 2016

सुर-३८४ : "सारे मौसम लगते 'मौत सम'...!!!"

दोस्तों...

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सारे मौसम लगते मौत सम...
जब मन पर छाया हो उदासी का एक ही रंग...

फिर कुछ भी बाहर का आलम भीतर उसका कोई भी असर नहीं होता कि दिल के आसमान पर तो गम की घटा छाई रहती तभी तो जहाँ कोई उसका उत्सव मनाता नजर आता वहीँ कोई दूजा मातम में डूबा दिखाई देता कि उसके जेहन में दुःख का स्थायी भाव अपना कब्जा जमा लेता जिसे बदल पाना सबके लिये सहज नहीं होता कुछ लोगों को खुशियों से कोफ़्त और आंसुओं से लगाव होता तो वो हर तरह के बदलाव में रोने का बहाना ढूंढ ही लेते अभी भी जहाँ सब बदले हुए मौसम का लुत्फ़ ले रहे तो दूसरी तरफ किसी के लिए ये ‘मौसम’ बन गया ‘मौत सम’---     

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सूरज-चाँद से
भले ही निर्धारित हो
बाहर का मौसम
लेकिन भीतरी मनोदशा का
कोई भी ताल्लुक नहीं
बहार के आने से
कि वो तो आप ही बदलती
अंतर के मिज़ाज से
जिसके अपने अलग ही
सूरज-चाँद होते
जिसे देख वो कभी खिलता
तो कभी मुरझाता
फिर चाहे कैसा भी हो
प्राकृतिक परिवेश
उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता
लोगों के लिये भले ही
आता हो सर्द-गुलाबी मौसम
पर, जिन पर छायी हो
सदाबहार उदासी
उनके लिये तो हर बदलाव
हर पल होता मौत सम ।।
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जीना सबको नहीं आता तभी तो एक ही वातावरण सब पर अलग-अलग असर डालता मगर, जिसके लबों ने हर हाल में मुस्कुराना सीख लिया उसे किसी भी तरह के परिवर्तन से कोई फर्क नहीं पड़ता वो तो सबका स्वागत हंसते हुए करता तो क्यों न हम भी इस बेमौसम की बारिश और बढ़ी हुई ठंडक को शिकवों-शिकायत में जाया न कर इसका आनंद ले... जो हमने प्रकृति को दिया उसे दिल से स्वीकार करें कि अब अपने बोये हुए कर्मों की फसल काटने का वक्त आ गया हैं... :) :) :) !!!
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१९ जनवरी २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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