सोमवार, 11 जनवरी 2016

सुर-३७६ : "विवेकानंद ज्ञान ज्योति---०७ !!!"

दोस्तों...

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जब छूट जाये
धर्म के समस्त प्रतीक
और शेष रह जाये 
केवल सूक्ष्म दिव्य आत्मा
तब ही कोई समभाव से
सभी आत्माओं को देख पाता
पर, भक्ति की उस
परम अवस्था तक कौन पहुंचता ?
जो चाहता पाना ईश्वर
बाकी तो जिसे देखो महज़
भक्ति का आडंबर करता नज़र आता
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‘धर्म’ एक अत्यंत सूक्ष्म भावना हैं जिसे हर एक व्यक्ति स्थूल ‘प्रतीकों’ / ‘चिन्हों’ के द्वारा ग्रहण करने का प्रयास करता जिसकी वजह से वो इन साधनों के जाल में ही फंसकर रह जाता और उस तक पहुँच ही नहीं पाता जो हमारी बहुत बड़ी भूल हैं कि हम सब उस परम शक्ति ईश्वर की आराधना करने के नाम पर तमाम तरह की वस्तुओं का जुगाड़ कर लेते फिर पता ही नहीं चलता कि कब उसी परमात्मा को भूल इन माध्यमों को ही सर्वोपरि समझ इनको पूजने लग जाते यहाँ तक कि हद तो तब हो जाती जब हम इन्हें ही ‘भगवान’ समझने लगते और इनके लिये न सिर्फ किसी से भी लड़ पड़ते बल्कि किसी को जान से मारने में नहीं हिचकते क्योंकि हम उसे ‘धर्मयुद्ध’ का नाम देते अतः उसके निमित्त किया हर कर्म पुण्य समझते जबकि प्रत्येक संप्रदाय या मज़हब ने अपने आपको पृथक दर्शाने के लिये जो भी अपने-अपने पहचान चिन्ह निर्मित किये वो केवल मानव निर्धारित धार्मिक संकेत हैं जिसे देखकर मन में उस ‘परमपिता’ का ध्यान आना चाहिये जिसने हम सबको बनाया लेकिन ऐसा होता नहीं बल्कि उसे देखकर तो उस धर्म विशेष व उसे मानने वालों की तस्वीर जेहन में उभरती और या तो हम कट्टरता के कारण उन्हें नजरंदाज़ कर आगे बढ़ जाते या फिर धर्मभीरु होते तो उनके समक्ष नतमस्तक हो जाते याने कि हमारे मन में एक बार भी ये ख्याल नहीं आता कि ‘रंग’ कोई हो या कोई हो ‘ग्रंथ’ या किसी का कोई भी ‘झंडा’ मगर, इन सब चीजों का तो कोई ‘धर्म’ नहीं होता ये तो उस मजहब के स्थापक या अनुयायियों के द्वारा अपने मत को सबसे अलग दर्शाने हेतु उन्हें चुना गया तो क्या ये ‘मूर्त’ वस्तुयें उस ‘अमूर्त’ का स्थान ले सकती हैं जिसे हम प्राप्त करना चाहते या फिर कहीं हमारी अपनी ही सोच में खोट हैं कि हम ही ईश्वर को पाना नहीं चाहते तो इन आडम्बरों की झांकी सजा अपने आपको दिलासा देते रहते कि हम बड़े धार्मिक और अपने धर्म के प्रति बड़े संवेदनशील हैं जबकि हकीकत में यदि हम सचमुच भगवान के उपासक होते तो फिर उसके लिये इन सबकी कोई आवश्यकता नहीं कि वो ‘परमेश्वर’ तो हर किसी के अंतर में विराजमान हैं पर, हम केवल पूजा का ढोंग करते जिसमें कहीं भी उस परमेश्वर से मिलन की कोई कामना मन में नहीं होती यदि वो होती तो फिर ये भी भान होता कि भले ही ‘धर्म’ को कितने भी नाम या प्रतीक से प्रदर्शित किया जाये असल में वो उस परम शक्तिशाली जगतपिता की तरह एक ही हैं और जो ये अलग-अलग धारायें निकली हैं वो सब उसी एकमात्र स्त्रोत से निकली हैं पर, हमारी दृष्टि सिर्फ धारा पर होती और वो ‘सूक्ष्म छिद्र’ या ‘जन्मस्थल’ जहाँ से ये अनगिनत धारायें निकली उसे विस्मृत कर देते तभी तो आजीवन भटकते रहते और कभी किसी ‘धर्मग्रंथ’ तो कभी किसी ‘विधि’ या कभी किसी ‘मंत्र’ या किसी ‘अनुष्ठान’ में उसे तलाशते रह जाते याने कि ‘कस्तुरी मृग’ की तरह सदा अपने ही भीतर बसी उस सूक्ष्म ईश्वरीय शक्ति से अनजान उसे इन स्थूल वस्तुओं में खोजते रह जाते

इसे हम यूँ समझे कि मूर्ति, धर्मग्रंथ, हवन-पूजन, नाम जपना, घंटियाँ, मोमबत्तियां, आरती, अगरबत्ती मन्दिर, मस्जिद, गिरजा, गुरुद्वारा ये सब ‘भक्ति’ के बाहरी रूप या ‘प्रथम सोपान’ हैं जिनसे होकर यदि हम उच्चतर अवस्था में पहुंच पाते तो फिर इनका कोई मोल नहीं रह जाता और इस तरह ये परोक्ष रूप से हमारी साधना में सहायक सिद्ध होते लेकिन जब हमारी यात्रा इनके आस-पास ही समाप्त हो जाती या इनके इर्द-गिर्द ही घुमती रहती तो फिर ये हमारे उस परम पावन ध्येय प्राप्ति के मार्ग में अवरोधक बन जाते अतः हमें ‘सूक्ष्म’ एवं ‘स्थूल’ के बीच की अदृश्य रेखा को पार करना होगा वरना, हम इसके भीतर ही रह जायेंगे और उसे लांघकर उस पार न जा पायेंगे हमारा उद्देश्य ‘आत्मदर्शन’ होना चाहिये जिसके माध्यम से फिर उस ‘परमात्मा’ को भी देख पाये पर, हम तो भौतिक पदार्थों की माया बगिया में भ्रमर की भांति उड़ते रह जाते और कभी भी अपने उस मूल घर जिसे कि ‘परम धाम’ कहते नहीं जा पाते जब तक कि हमें उसका बोध नहीं होता चूँकि हमने जिस संप्रदाय में जनम लिया वो हमने तय नहीं किया तो उसे मानना या उसके नियमानुसार चलना हमारा फर्ज़ बनता लेकिन सच्चे ज्ञान दीपक से अपने भीतर उजाला न कर उसी धर्म में मर जाना ये तो हमारी गलती ही कहलायेगी कि इतने अच्छे अवसर को हमने यूँ ही गंवा दिया अपना विकास न किया और सदैव अपने आपको शरीर ही समझते रहे कभी भी उससे बाहर निकलने का प्रयत्न नहीं किया जो कि हमें कर्म करने हेतु प्रदान किया गया था मगर, हमने उसे फ़िज़ूल जाया किया इसलिये जिस तरह एक बालक प्राथमिक कक्षा में पढ़ी किताबों को पढ़ उनसे शिक्षा ग्रहण कर आगे निकल अगली कक्षा में पहुँच जाता उसी तरह यदि हम भी इन वस्तुओं से सार तत्व को धारण कर ले तो वही ‘धर्म’ के वास्तविक मायने होंगे लेकिन हम तो उनको पकड़ कर बैठे हुये हैं इसकी वजह शायद यही हैं कि हममें से कोई भी ‘ईश्वर’ के विषय में कुछ नहीं जानता तभी तो सब उस पर झगड़ा करते क्योंकि यदि जान ही लिया होता तो फिर बहस का तो कोई मुद्दा ही नहीं होता क्योंकि आख़िरकार तो धर्मों की ये अलग-अलग धारायें उसी परमात्मा रूपी महासागर में विलीन हो जाती तो यदि हम सब उस सूक्ष्म को पाना चाहते तो भले ही स्थूल का सहारा ले परंतु केवल माध्यम की तरह जिस तरह कि अपने गंतव्य तक पहुंचने ‘रेल’ या ‘बस’ में कुछ देर के लिये सफर करते लेकिन उसमें रहते तो नहीं उसी तरह इन सभी वस्तुओं को भी सिर्फ़ ‘परमधाम’ तक जाने का माध्यम समझे न कि पड़ाव फिर ये सब हमें भ्रमित न कर पायेगी... ‘धर्म’ की इन गहनतम शिक्षाओं को देने का प्रयास करते थे ‘स्वामी विवेकानंदजी’ तभी तो वे विदेश में अपने धर्म का परचम लहरा सके और हम उस सबक को याद रखने की जगह ‘स्वामीजी’ पर ही अपनी आस्था केंद्रित कर ले तो इसमें उनका क्या कुसूर कि उन पर तो श्रद्धा लेकिन उनकी सीखों को तो भूल गये तो यही प्रण ले कि ‘स्थूल’ नहीं ‘सूक्ष्म’ को पाना हैं... आत्मा ही जिसका ठिकाना हैं... :) :) :) !!!             
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११ जनवरी २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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