रविवार, 3 जनवरी 2016

सुर-३६८ : "कुरान और गीता की दस्ताने इश्क़... बाजीराव-मस्तानी फ़िल्म...!!!"

दोस्तों...
आपको मेरा
प्यार भरा नमस्कार...

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तुझे याद कर लिया हैं आयत की तरह ।
अब तेरा जिक्र होगा इबादत की तरह ।।

ऐतिहासिक फ़िल्मों के प्रति रुझान कुछ अधिक ही होता हैं क्योंकि इतिहास को जीवंत देखना रोमांचित करता कि जो कुछ भी हमने पढ़ा या सुना या जाना उसका चित्रण उसे मानस पटल पर ज्यों का त्यों अंकित कर देता तभी तो अक्सर उन कहानियों को फ़िल्मी पर्दे पर दोहराया जाता और जब-जब भी बनाने वाला उसके प्रति पूर्ण समर्पित एवं ईमानदार होता तो अपनी फिल्म के जरिये वो खुद ही इतिहास रच देता कुछ ऐसा ही कमाल किया हैं ‘संजय लीला भंसाली’ ने जिन्होंने मराठा साम्राज्य के पेशवा ‘बाजीराव’ और उसकी दूसरी पत्नी ‘मस्तानी’ की प्रेमकथा को अपने निर्देशन का विषय बनाया जिसे वे कई सालों से बनाना चाहते थे परंतु किसी वजह से ज्यादातर तो कलाकारों की डेट्स न मिल पाने के कारण उनका वो स्वप्न साकार नहीं हो पा रहा था पर, आखिरकार वे न सिर्फ कामयाब हुये बल्कि एक जबर्दस्त सफ़ल फिल्म दर्शकों को दे पाये जिसे यदि पूर्ण रूप से ऐतिहासिक दस्तावेज न भी माना जाये क्योंकि सिनेमाई नाटकीयता का समावेश होने से कहीं-कहीं कहानी में निर्देशन की स्वतंत्रता ली गयी हैं तो भी ये दर्शकों को कहीं से भी अविश्वसनीय नहीं लगती कि उसे बड़ी लगन, मेहनत, दीवानगी के साथ कई सालों के शोध के बाद पूर्ण तैयारी कर बनाया गया हैं तो ‘संजय जी’ का वो अथक परिश्रम रजत पर्दे पर साफ़ दिखाई देता हैं चाहे फिर वो उस कालखंड के परिवेश की बात हो या फिर परिधान या बोलचाल या रहन-सहन या राजघराने की सभी को उसी तरह से दर्शाने के लिये बड़ी खोज और अध्ययन किया गया हैं तो कलाकारों का चयन भी उनके पात्रों के अनुरूप किया गया हैं जिसमें अपने अभिनय से हकीकत का रंग भरने में किसी भी अदाकार ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी चाहे फिर भूमिका मुख्य हो या सहायक या चरित्र मतलब उसकी लंबाई को मद्देनजर न रख उस पात्र की महत्ता को रेखांकित किया हैं तभी तो देखने वाला उनको वही पात्र समझता जिसे वे उस वक्त निभा रहे हैं इसलिये लोग सिर्फ ‘बाजीराव’ बने रणवीर’ या ‘मस्तानी’ बनी ‘दीपिका’ या ‘काशी बाई’ बनी ‘प्रियंका’ को ही नहीं बल्कि ‘तन्वी आज़मी’ और ‘मिलिंद सोमण’ को भी नहीं भूलते जो अपने पात्र की खोल में पूरी तरह से घुसकर उसे निभाते नजर आते हैं इस फिल्म के लिये जिस तरह से ‘रणवीर सिंह’ ने अपने आपको बदला हैं वो काबिले तारीफ हैं जिसमें उन्होंने केवल बाहरी रूपरंग ही नहीं बल्कि अपनी चाल-ढाल और मराठी भाषा के लहजे तक का ध्यान रखा हैं इसी तरह ‘दीपिका पादुकोणे’ ने भी एक दीवानी प्रेयसी की भूमिका में अपने आपको यूँ पेश किया कि वो पूरी फिल्म में ‘मस्तानी’ ही दिखाई दी उसी तरह ‘प्रियंका चोपड़ा’ ने भी अपने हृदयस्पर्शी अभिनय से दिल छू लिया तो ‘तन्वी आज़मी’ ने माँ के रोल को मानो हूबहू उतार दिया उन्हें देखकर लगता कि वो सचमुच ही ‘बाजीराव’ की माँ हैं ।

फ़िल्म का सबसे सशक्त पक्ष उसके संवाद हैं जो इस कदर जेहन पर तारी होते कि उन्हें सुनकर वही भाव जागता जिस अनुभूति के साथ उनको बोला गया हैं पूरी फिल्म में सभी चरित्रों के इतने सारे डायलॉग हैं पर, सभी के सभी लाजवाब जिनमें अल्फाजों का बड़ा ही खुबसूरत तालमेल हैं जिसकी वजह से वो फिल्म के बाद भी याद रह जाते हैं चाहे फिर फिल्म की शुरुआत में ‘बाजीराव’ के आगमन का दृश्य हो जिसमें उनका परिचय देने के लिये---

“चीते की चाल बाज़ की नज़र और ‘बाजीराव’ की तलवार पर संदेह नहीं करते कभी भी मात दे सकती हैं, ‘बाजीराव’ की रफ़्तार ही ‘बाजीराव’ की पहचान हैं” 

जब ‘रणवीर’ इस संवाद को बोलते हैं तो कम शब्दों में ही ये ज्ञात हो जाता कि ‘बाजीराव’ एक कुशल योद्धा हैं जिनकी तलवारबाजी का कोई जवाब नहीं साथ ही ये भी बता दिया जाता कि वे केवल शस्त्र ही नहीं शास्त्रों के भी अच्छे जानकार हैं ये फिल्म का पहला-पहला ही दृश्य हैं जो बड़े ही प्रभावशाली ढंग से पर्दे पर अवतरित होता हैं और ‘रणवीर’ अपने आत्मविश्वास से ये ज़ाहिर कर देते कि वो इस भूमिका के लिये एकदम सही चुनाव हैं जो पूरी फिल्म में ये साबित करते कि वे ‘जन्म से ब्राम्हण तो कर्म से क्षत्रिय हैं’ और उनकी शपथ भी उनके किरदार के अनुरूप हैं---

“आंधी रोके तो हम तूफ़ान
तूफ़ान रोके तो हम आग का दरिया
ये शपथ हैं ‘बाजीराव’ बलाल की”  

और हर युद्ध में वो इसका पालन करते हैं तभी तो एक के बाद एक जीत हासिल करते हैं और अपनी मुहब्बत को भी न्यायसंगत ठहराते हैं जब ये कहते---
“बाजीराव ने मस्तानी से मुहब्बत की हैं, अय्याशी नहीं...”

तो उनका ये दावा खोखला नहीं लगता कि वो अपनी प्रेयसी से ये वादा भी करते हैं---
 “हम दोनों के दिल एक साथ धड़कते हैं... दुनिया हमे एक ही नाम से जानेगी ‘बाजीराव-मस्तानी’”

जिसे वो सत्य कर के दिखाते और अपने ‘पेशवा’ के रूप में वो उतने ही रौब से अपने साथी से कहते---
“लगाम दिखती नहीं पर जुबान पर होनी चाहिये”  

और एक योद्धा के रूप में वो बेहिचक निर्णय लेते---
“सीधे हमला करो जैसे किस्मत करती हैं” 

मतलब कि छोटे से छोटे संवाद में भी बड़ी गहराई हैं जिसमें रिश्तों पर भी बड़ी मार्मिक चोट की गया हैं---
“जब दरवाजों से ज्यादा दूरियां दिलों में आ जाये तो छत नहीं टिकती”

अपने भाई पर हमला करते हुए वो कहते---
“निशाना चूका नहीं बस, रिश्ता बीच में आ गया”

और जब उनकी माँ कहती तो ये बात राजसी सियासत की पोल खोलती---
“बात जब साम्राज्य की आती तो रिश्ते दांव पर लग जाते”    

इस फिल्म के कई दृश्यों और संवादों ने तो हिंदी सिने जगत में मील का पत्थर कहलाने वाली ‘मुग़ल-ए-आज़म’ की भी याद दिला दी चाहे फिर वो ‘दीपिका’ का ‘मोहे लाल रंग में रंग दो नंद के लाल’ नृत्य हो जो ‘मधुबाला’ के ‘मोहे पनघट पर नंदलाल छेड़ गयो री’ की याद दिलाता तो ‘आइना महल’ भी ‘कांच महल’ सा दिखाई देता और बाजीराव-मस्तानी के प्रेम दृश्यों में भी वही अंतरंगता झलकती जिसकी वजह से उन दोनों के इश्क की दास्तां में हर कोई मस्ताना हो जाता क्योंकि इश्क की पैरवी करते बड़े ही दमदार संवाद बोले गये हैं---

“जो तूफानी दुनिया से बगावत कर जाये वो इश्क 
भरे दरबार में जो राजा से  लड़ जाये वो इश्क़ 
जो महबूब को देखे तो ख़ुदा को भूल जाये वो इश्क़”

और जब ‘मस्तानी’ भरे दरबार में अपने इश्क़ का ऐलान करती तो ये दृश्य भी ‘प्यार किया तो डरना क्या’ की याद दिलाता जब वो कहती---
“किसकी तलवार पर सर रखूं ये बता दो मुझे 
इश्क़ करना अगर खता हैं तो सज़ा दो मुझे”

इसी तरह जब वो ‘बाजीराव’ को अपने प्रेम का इज़हार कर कहती---
“तुझे याद कर लिया हैं आयत की तरह
अब तेरा जिक्र होगा इबादत की तरह”

तो किसी पाकीज़ा मुहब्बत का अहसास दिल में उतर जाता वाकई 'इश्क़ इबादत हैं जिसके लिये इजाजत की जरूरत नहीं" चूँकि फिल्म मूलतः ‘बाजीराव-मस्तानी’ के प्रेम को आधार मानकर ही बनाई गयी तो उसे बड़ी ही शिद्दत से जीवंत किया गया हैं ताकि वो इश्क देखने वाले को छू ले इसलिये हर दृश्य कमाल का बनाया गया हैं जिसमें ‘बाजीराव’ की पत्नी ‘काशी बाई’ की पीड़ा को बड़ी ही गहनता से अंतर से महसूस कर ‘प्रियंका’ ने जैसे सबको नेपथ्य में चली गयी उस नायिका की याद दिला दी जो अपने ही पति को किसी और औरत के साथ देख जिस वेदना से गुजरती वो उसके चेहरे पर बड़े ही मार्मिक ढंग से नज़र आता और दर्शकों की सहानुभूति भी ले जाता उसका ये कहना कि---
"जंग में खोने वाले फिर भी मिल जाते हैं,
अपने आँगन में खोने वाले मिलते नहीं "

उसके दर्द को बयाँ करता और जब वो अपने पति से कहती---
"पत्नी तो राधा भी नहीं थी लेकिन नाम कृष्णा का उन्ही के साथ लिया जाता"

जहाँ वो ये बता देती कि वो पत्नी होकर भी वो स्थान हासिल न कर सकी जो मस्तानी ने प्रेमिका बन का कर लिया ।

इस प्रेम कहानी को यदि ‘गंगा-जमना-सरस्वती’ से जोड़कर देखे तो ‘काशी’ भी ‘सरस्वती’ की तरह लुप्त हो जाती पर अपना अस्तित्व मिटने नहीं देती उन दोनों के मध्य बनी रहती... यदि कुरान की आयत को गीता के श्लोक से और हरे रंग को भगवा से प्यार करते देखने चाहते हैं तो बिना दिमाग लगाये इस फिल्म को जरुर देखे... :) :) :) !!!
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०३ जनवरी २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह “इन्दुश्री’
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