शुक्रवार, 8 जनवरी 2016

सुर-३७३ : "विवेकानंद ज्ञान ज्योति---०४ !!!"

दोस्तों...

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न समझे सभी
जीवन क्या ?
बस, जीते जाते
सांसों के साथ-साथ
जिस दिन भी
थमी सांस की धोंकनी
गिर जाते जमीं पे
होकर बेदम
फिर भी किसी को देख
संभलता न दूजा
जीना तो उसी का जीना
जिसने उसे माना परोपकार पूजा
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‘स्वामी विवेकानंदजी’ का कहना था कि हमारे जीवन में जो भी दुःख हैं उसे पैदा करने वाले हम स्वयं ही हैं क्योंकि हमने ही सबसे अपेक्षायें बाँध रखी हैं तो जब वो पूरी नहीं होती या हमें अपनी उम्मीद अनुसार परिणाम नहीं मिलता तो फिर हमारा दुखी होना स्वाभाविक हैं अतः हमें कभी भी किसी से कोई उम्मीद नहीं रखना चाहिये केवल निःस्वार्थ भाव से सभी के प्रति अपने सभी कर्तव्यों का पालन करना चाहिये उसके पश्चात् जो भी उसका प्रतिदान हैं वो हमें स्वतः ही प्राप्त हो जायेगा लेकिन जब हम ये सोचकर कोई भी कार्य करते कि उसके बदले में हमें फलां चीज़ मिल जाये या हमारा फलां काम बन जाये तो फिर जब ऐसा नहीं होता तो ज़ाहिर हैं मन में बुरा तो लगेगा लेकिन यदि हम बिना फल की कामना किये केवल इसलिये हर काम करें कि वो हमें करना ही हैं या हमारा फर्ज़ हैं तो फिर उसका फल भी उसी के अनुसार मिलता आश्चर्य की बात कि ये सब बातें हम सब ही जानते लेकिन फिर भी अपने स्वभावनुसार कर्म करते जिसके कारण खामियाज़ा भी भुगतना पड़ता पर, अक्ल ठिकाने न आती कि स्वार्थ ने हमें इस कदर घेर लिया हैं जब तक किसी भी बात से हमें कोई लाभ न पहुंचे या हमें फायदा न पहुंचे हम उसे करने में कोई रूचि नहीं लेते यही हमारे दुखों की मूल वजह हैं तो फिर क्यों सब कुछ जानते-समझते भी हम वही करते जिससे हम दुःख मिलता ऐसे में ये कहना एकदम उपयुक्त हैं कि ‘अपने दुखों को पैदा करने वाले हम स्वयं ही हैं” वाकई... कोई भी हमें न तो बाध्य करता न ही हमसे जबरदस्ती कुछ कराता अगर हम ये मान भी ले कि किन्हीं परिस्थितियों में ऐसा हो भी जाये तब भी अधिकांशतः तो हम अपनी ही मर्जी से हर काम करते तो फिर हम खुद ही क्यूँ ‘दुःख’ को जन्म देते जबकि हमें ये इल्म भी होता कि हमारा ये कदम हमें सिवाय तकलीफ़ के कुछ नहीं दे सकता फिर भी हम उस मार्ग पर आगे बढ़ते ही जाते क्योंकि वहां हमें लालच दिखाई देता तो ऐसे में जब पलटकर ‘सुख’ की जगह ‘दुःख’ आ जाता तो शिकायत क्यों करते ? क्यों नहीं तटस्थ भाव से अपनी भूमिका का निर्वहन कर पाते ?? क्यों किसी भी काम को करते समय उससे अपेक्षा की भावना रखते ???

किसी समय भारतवर्ष में एक बड़ा सम्राट राज्य करता था किसी ने उससे एक बार एक प्रश्न किया---‘संसार में सबसे आश्चर्य की बात कौन-सी?’ उत्तर मिला---‘आशा’... सच, कितनी बड़ी सच्चाई छूपी हुई हैं इस छोटे से जवाब में कि ये जरा-सा शब्द ‘आशा’ ही सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक हैं इस दुनिया में जो इंसान से न जाने क्या-क्या करवाता रहता इसे मन में पाल वो हर काम करता और जब उसकी पूर्ति न होती तो निराश होकर या तो अवसाद में घिर जाता या फिर कभी-कभी गलत दिशा में भी चला जाता जबकि निर्विकारी होकर रहने से न तो मन अशांत होता और न ही हमारे साथ ही कुछ बुरा होता पर, इस माया जगत में ये संभव हो तो किस तरह कि पग-पग पर चित्त को मोहने वाले नयनाभिराम आकर्षण जो बिखरे होते तो फिर इनमें फंसकर हम उस पड़ाव पर ही रुक जाते या उसे पाने की कोशिशों में लग जाते यहाँ तक कि अपने आस-पास असंख्य लोगों को इसी तरह के इच्छाओं के दलदल में गिर लगातार धंसते देखते रहने पर भी कभी ये ख्याल नहीं आता कि कम से कम हम अपने आपको तो इसमें लिप्त न होने दे पर, हम तो खुद ही उसमें छलांग लगा देते तो ऐसे में जबकि सब ही अनंत ख्वाहिशों के जाल में फंसे हुये तो फिर कौन किसको निकाले या कौन किसकी मदद करें ? या फिर यूँ भी कह सकते कि कोई निकलना ही न चाहे तो फिर सहायता का तो प्रश्न ही नहीं उठता सबसे बड़ी बात कि हम अपने जीवन में न जाने कितनी मौत देखते या मौत की खबरें सुनते फिर भी गाफ़िल बन जीये जाते जैसे कि वो हमको तो आयेगी ही नहीं या मानते कि सबको आंनी हैं तो हमें भी आयेगी लेकिन उसके लिये तैयार नहीं रहते न ही उससे कोई सबक ले अपने आप में परिवर्तन करते बल्कि हम तो ये समझते कि हम कभी भी अचानक मर सकते तो बेहतर कि हर पल को अंतिम मान न सिर्फ़ ख़ुशी-ख़ुशी जिये बल्कि दूसरों को भी ख़ुशी बांटे यही एकमात्र जीने का सही तरीका और सूत्र हैं... सुख पाना तो दुःख भी अपनाओ... एक ही सिक्के के दो पहलू मुमकिन नहीं कि आप सिक्का तो ले मगर सिर्फ उसका ही पक्ष आपको मिले दूसरा चाहे न चाहे मिलेगा तो फिर दोनों को समभाव से क्यों न ले... :) :) :) !!!      
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०८ जनवरी २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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