सोमवार, 18 जनवरी 2016

सुर-३८३ : "सआदत हसन मंटो सा अफसानानिगार... न जन्म फिर वो कलमकार...!!!"


दोस्तों...

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भावनायें जिसकी
हर अंतर को छूती
वो समाज को अपने ही
अलग चश्में से देखती
कलम भी फिर उसकी  
सच की आग उगलती
निडरता से मन की बात
सफों पर बयाँ करती
जिसमें होती ये खूबियाँ
दुनिया उसको हमेशा याद करती
‘सआदत हसन मंटो’ सी
हस्ती बार-बार न जन्म लेती
आज पुण्यतिथि पर  
साहित्यिक दुनिया उसे नमन करती
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जिस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया जाता हैं वही पर उसकी लेखनी के लिये उस पर अश्लीलता का आरोप लगा उसे अदालतों में खड़ा भी किया जाता हैं सिर्फ वहां ही नहीं जहाँ उसने जनम लिया बल्कि जिसकी खातिर अपनी जन्मभूमि को त्यागा वहां भी उसे कठघरे में लाकर उस पर आरोप-प्रत्यारोप का हमला किया जाता हैं मगर, कोई भी उसके सृजन में ‘अश्लीलता’ को सिद्ध नहीं कर पाया कि वो तो उनके जेहन में बसी थी तभी तो शब्दों में भी नजर आई फिर पढ़ने वाले की गलती की सज़ा लिखने वाले को भला क्यों कर मिलती उस पर जब उसके पास अपनी अभिव्यक्ति को नैतिक साबित करने के अकाट्य तर्क भी हो तो फिर दुनिया की कोई भी न्यायपालिका उसे दोषी सिद्ध नहीं कर सकती तभी तो उन्होंने जितनी निडरता से अपने कागज़ पर अपने अल्फाजों को उकेरा उतनी ही दिलेरी से भरी अदालत में माननीय जज के समक्ष उनका बचाव करने अपना पक्ष भी रखा कि --- “एक लेखक तभी अपनी कलम उठता हैं, जब उसकी संवेदना पर किसी ने चोट की हो” और उनके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था कि उन्होंने ११ मई १९१२ को जब जनम लिया तब के हालात एवं समाज में फैली कुरीतियों व पाखंड ने उनके बालमन पर न केवल अपना गहरा प्रभाव छोड़ा बल्कि उनको वो सभी आंखन देखी ज्यों की त्यों पन्नों पर उतारने हेतु प्रेरणा का अपार स्त्रोत और उनकी प्रासंगिकता को जायज दर्शाने का साहस भी दिया तभी तो उन्होंने उस जमाने में ही जिस तरह के अफ़साने लिखे उसने लोगों की सोचने-समझने की शक्ति की सामर्थ्य को चेलेंज किया क्योंकि उनका शब्द और विषय तो बेहद के थे जिसे एक सीमित दायरे में रहने वाले किस तरह से समझ सकने का हौंसला लाते तो ये सब जो कुछ भी उनके साथ हुआ वो तो होना ही था जब भी कोई व्यक्ति समाज की नग्नता को ज़ाहिर करता तो फिर उसे तो समाज के तथाकथित ठेकेदारों के सवालों का निशाना बनना ही पड़ता पर, जिसका जन्म ही इस काज के लिये हुआ हो तो वो फिर किसी भी हाल पीछे न हटता बल्कि हर सितम झेल आगे ही आगे बढ़ता

या तो ‘मंटो’ समय से पहले ही पैदा गये थे या फिर उनको समझने वालों ने ही जनम लेने में देरी कर दी या फिर अब भी वो कौम जन्मी ही नहीं जो उन शब्दों के साथ न्याय कर सके कि उन्होंने अपने आस-पास जो कुछ भी होते हुये देखा उसके प्रति उनका नजरिया अलहदा था क्योंकि उनके व्यक्तित्व में ही हर तरह की ज्यादितियों के विरुद्ध बागीपन, समाज की कुरीतियों के प्रति आक्रोश और दोगलेपन के प्रति घृणा का भाव भरा था जिसने उनकी कलम में भी आग भर दी थी जो अपनी ज्वाला से उन पाठकों की आँखों को चुंधिया देती थी जिनके अंदर उनको समझ पाने की आब न होती तो फिर शब्दाग्नी से अंधेपन को प्राप्त हुये वो अपनी कमतरी का आरोप लिखने वाले पर लगाते पर, उसने तो ठानी ही थी कि वो जो भी महसूस करते हैं उसे बयाँ कर के ही रहेंगे फिर चाहे ये ज़ालिम दुनिया उन्हें फंसी पर ही क्यों न लटका दे वैसे भी लोगों को सच्चाई का सामना करने की आदत जो नहीं तो फिर सच्चाई कहने वाला किस तरह से सहन होता मगर, वो अनवरत अपना काम करता रहा और आज ही के दिन १८ जनवरी १९५५ को वो इस नासमझ दुनिया को छोड़ वहीँ चले गये जहाँ उन पर इस तरह के इलज़ाम लगाने वाला कोई नहीं था... तो आज पुण्यतिथि पर स्मरण सहित नमन... :) :) :) !!!          
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१८ जनवरी २०१६
© ® सुश्री इंदु सिंह इन्दुश्री
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